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________________ जैन साहित्य में कुरुवंश, कुरुजनपद एवम् हस्तिनापुर 0 डा० रमेशचन्द्र जैन हरिवंश पुराण में कुरुवंश सम्बन्धी विवरण प्रभूततेज, प्रभूततेज के तेजस्वी, तेजस्वी के तपन, तपन जिनसेन कृत हरिबंश पुराण मे कुरुवश को सोमवंश के प्रतापवान, प्रतापवान् के अतिवीर्य, अतिबीर्य के के अन्तर्गत वणित किया गया है, तदनुसार षट्खण्ड पृथ्वी सुवीर्य, सुवीर्य के उदितपराक्रम, उदितपराक्रम के महेन्द्रके स्वामी भरत ने चिरकाल तक लक्ष्मी का उपभोग कर विक्रम, महेन्द्रविक्रम के सूर्य, सूर्य के इन्द्रद्युम्न, इन्द्रद्युम्न के अर्ककीर्ति नामक पत्र का अभिषेक किया और स्वयं अति- महेन्द्रजित्, महेन्द्रजित् के प्रभु, प्रभु के विभ, विभ के शय कठिन आत्मरूप परिग्रह से युक्त एव कठिनाई से अविध्वस, अविध्वम के वीतभी, वीतभी के वृषभध्वज, निग्रह करने योग्य इन्द्रिय रूपी मृगममूह को पकड़ने के लिए वृषभध्वज के गरुडाङ्क, और गरुडाक के मृगाडू आदि जाल के समान जिन-दीक्षा धारण कर ली। राजा अर्क- अनेक राजा सूर्यवश में उत्पन्न हुए। ये सब राजा विशाल कीति के स्मितयश नाम का पुत्र हुआ। अर्ककीर्ति उसे यश के धारक थे और पुत्रों के लिए राज्यभार सौप तप लक्ष्मी दे तप के द्वारा मोक्ष को प्राप्त हुआ । स्मितयश के कर मोक्ष को प्राप्त हुए । भरत को आदि लेकर चौदह लाख बल, बल के सुबल, सुबल के महाबल, महाबल के अतिवल, इक्ष्वाकुवंशीय राजा लगातार मोक्ष गए। उसके बाद एक अतिबल के अमृतबल, अमृतबल के सुभद्र, सुभद्र के सागर, राजा सर्वार्थसिद्धि से अहमिन्द्र पद को प्राप्त हुआ। फिर मागर के भद्र, भद्र के रवितेज, रवितेज के शशि, शशि के अस्सी राजा मोक्ष गए, परन्तु उनके बीच में एक-एक राजा इन्द्र पद को प्राप्त होता रहा । सूर्यवश में उत्पन्न हुए (पृष्ठ १८ का शेषांश) कितने धीरवीर राजा अन्त में राज्य का भार छोड़कर तप वह आंखों से ओझल रहता है। इस सत्य को आचार्य हैमचन्द्र ने इन शब्दों में प्रकट किया था-- का भार धारण कर स्वर्ग गए गए और कितने ही मोक्ष अपर्यायं वस्तु समस्यमान गए । भगवान् ऋषभदेव के बाहुबली पुत्र थे, उनसे सोममद्रव्यमेतच्च विविच्यमानं । यश नामक पुत्र हुआ। वह सोमयश सोमवंश (चन्द्रवंश) का -हम अभेद के परिपार्श्व मे चनें तो पर्याय लुप्त हो कर्ता हुआ । सोमयश के महाबल, महाबल के सुबल और जाएगा, बचेगा द्रव्य । हमारी दुनिया बहुत छोटी हो सुवल के महाबली पुत्र हुआ। इन्हें आदि लेकर सोमवंश में उत्पन्न अनेक राजा मोक्ष को प्राप्त हुए । इस प्रकार जाएगी। विस्तार से शून्य हो जाएगी। हम भेद के परि भगवान् ऋषभदेव का तीर्थ पृथ्वी पर पचास लाख करोड़ पार्श्व में चलें तो द्रव्य लुप्त हो जायेगा, बचेगा पर्याय । मगर तक अनवरत रहा । इस तीर्थकाल मे अपनी दो हमारी दुनिया बहुत बडो हो जायेगी। भेद अभेद को निगल शाखाओं सूर्यवंश और चन्द्रवश मे उत्पन्न हुए इक्ष्वाकुजायेगा । केवल विस्तार और विस्तार । वशीय तथा कुरु वशीय अनेक राजा स्वर्ग और मोक्ष को परिणमन के जगत् मे जैसा जीव है, वैसा ही पुद्गल प्राप्त हुए। है। किन्तु इस विश्व मे जितनी अभिव्यक्ति पुद्गल द्रव्य की है, उतनी किसी मे नहीं है। अपने रूप को बदल देने की हरिवंश पुराण के त्रयोदश पर्व के एक उल्लेखानुसार क्षमता जितनी पुद्गल में है, उतनी किसी में नही है। सर्वप्रथम इक्ष्वाकुवंश उत्पन्न हुआ, फिर उसी इक्ष्वाकुवंश मे हमारे जगत में व्यक्त पर्याय का आधारभूत द्रव्य यदि कोई मूर्यवंश और चन्द्रवंश उत्पन्न हुए । उसी समय कुरुवंश तथा है तो वह पुद्गल ही है। xxx उग्रवश आदि अन्य वंण प्रचलित हए'। जो इक्ष्वाकु क्षत्रियों
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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