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________________ १६, बर्ष ३५, कि०२ अनेकान्त पत्थर का नहीं है अत: वह धातु रूप से सत् है मिट्टी या अनादिकालीन स्वभाव सन्तति से बद्ध है सभी के अपनेपत्थर आदि अनन्त रूप से असत् है। घडा धातु का बना स्वभाब अनाद्यनन्त है।" भाव में ही जन्म सद्भाव, होकर भी सुवर्ण का है चांदी, पीतल तांबे आदि का नही विपरिणाम, बुद्धि, अपक्षय और विनाश देखे जाते है। बाह्य अतः स्वर्णरूप से सत् है चांदी या पीतल सैकडों धातुओ अभ्यन्तर दोनो निमित्तो से आत्म लाभ करना जन्म है जैसे की दृष्टि से असत् है। सोने का होकर भी जिस सोने की मनुष्य जाति आदि के उदय से जीव मनुष्य पर्याय रूप डली को गढ़ा गया है वह उस गढ़े गये सुवर्ण की दृष्टि से उत्पन्न होता है। आयु आदि निमित्तो के अनुसार उस सत् है तथा नही गढे गये खदान आदि में पडे हुए अघटित पर्याय मे बने रहा सद्भब या स्थिति है । पूर्व स्वर्ण की दृष्टि से असत् है। गढे गये सुवर्ण की दृष्टि से स्वभाव को कायम रखते हुए अधिकता हो जाना बुद्धि होकर भी वह देवदत्त के द्वारा गड़े गये उस स्वर्ण की दृष्टि है क्रमशः एक देश का जीर्ग होगा अपक्षय है। उस पर्याय से सत् है यज्ञदत्त आदि सुनारोंके द्वारा गढे गये सुवर्ण को की निवृत्ति को विनाश कहते है इस तरह पदार्थों मे दृष्टि से असत् है। गढ़े हुए सुवर्ण की दृष्टि से होकर भी अनन्तरूपता रहती है अथवा सत्य ज्ञेपत्त, द्रब्धत्व, अमूर्तत्व, वह मुह पर सकरे तथा बीच मे चोडे आकार से सत् हे अवगाहनत्व असख्यप्रदेशत्व अनादिनिधनत्व और चेतनत्र तथा मुकुट आदि के आकारो से असत् है। घडा मुंह पर आदि की दृष्टि मे जीव अनेकरूप है।" सकरा तथा बीच मे चौडा होकर भी वह गोल है अत सम्पूर्ण चेतन और अचेतन पदार्थ स्वरूप से स्वद्रव्य, गोल आकार से सत् है तथा अन्य लम्बे आदि आकारो से क्षेत्र, काल, भाव में सा है और परसा से परद्रव्य, क्षेत्र, असत् है। गोल होकर भी घड़ा अपने नियत गोल आकार काल, भाव से अरात सरूप है जैसे घट अपने द्रव्य-पूदगल, से सत् है तथा अन्य लम्बे आदि आकारो से असत् है अपने मत्तिका क्षेत्र--स्थान, कान---वनमान एव भाव-~-लाल गोल आकार वाला होकर भी घड़ा अपने उत्पादक काला आदि की ओजा से तो सन् स्वरूप है वही पट से परमाणुओं से बनेहए गोल आकार से असत् है इस तरह अन्य पटादिक के द्रा, काल, क्षेत्र, भाव में नहीं है असत् धड को जिस-जिस पर्याय से सत् कहेगे वे पर्याय स्वपर्याय रूप है दोनो मे से लिपी एक का मानने से वस्तु या तो है तथा जिन अन्य पदार्थों से वह व्यावृत होगा वे सभी पर सर्वात्मक हो जायेगी अयता लोकन्यवहार का अभाव पर्याय होगी।" हो जायेगा इसीलिए स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा से जैनदृष्टि से पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है उसमे कुछ धर्म सब पदार्थों को सत् का नही मानेगा और पररूपादि सामान्यात्मक है और कुछ विशेषान्मक । प्रत्येक पदार्थ मे चतुष्टय की अपेक्षा से प परयों को असत कौन नही दो प्रकार के अस्तित्व है उसमे कुछ धर्म सामान्यात्मक हे मानेगा।" इसी वा अगदेव कहते हैं कि जितने भी और कुछ विशेषात्मक । प्रत्येक पदार्थ में दो प्रकार के पदार्थ शब्दगोचर है वे सब विधि निषेधात्मक हैं कोई भी अस्तित्व है एक स्वरूपास्तित्व और दूसरा सादृश्यास्तित्व वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होनी जैसे बुरयक पुष्प लाल एक द्रव्य को सजातीय या विजातीय किसी भी द्रव्य से और सफेद दोनो रगा का नहीं होता तो इसका यह अर्थ असकीर्ण रखने वाला स्वरूपास्तित्व है। इसके कारण एक कदापि नही है कि वह वर्ग शन्य है इसी तरह पर की द्रव्य की पर्यायें इसके सजातीय या विजातीय द्रव्य से अपेक्षा से वस्तु मे नास्तित्व होने पर भी स्वदष्टि से उसका असकीर्ण रह कर पृथक् अस्तित्व रखती हैं। यह अस्तित्व प्रसिद्ध ही है कहा भी है कथञ्चित् असत् की भी स्वरूपास्तित्व जहाँ विवक्षित द्रव्य की इतर द्रव्यों से उपलब्धि और अस्तित्व है तथा कथञ्चित् सत् की भी अनुव्यावृत्ति करता है वहाँ वह अपनी कालक्रम से होने वाली पलब्धि और नास्तित्व । यदि सर्वया अस्तित्व और उपलब्धि पर्यायों में अनुगत भी रहता है। स्वरूपास्तित्व से अपनी मानी जाय तो घट की पटादि रूप से भी उपलब्धि होने पर्यायों में तो अनुगत प्रत्यय होता है तथा इतर द्रव्यो और से सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे और यदि पररूप की उनकी पर्यायों में व्यावृत प्रत्यय ।" सभी द्रव्य अपने तरह स्वरूप से भी असत्व माना जाय अर्थान् सर्वथा असत्व
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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