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________________ २०, बर्ष ३५, कि०१ अनेकान्त उक्त मभी सन्दर्भ आचार्यों ने अपनी मूल रचना के रूप मे 'संतकम्मपंजिका है । इसके अवतरण में अभी 'सत्त' शब्द दिए है---उद्धृतरूप में नहीं। जरा सोचिए । धार्मिक भी मेरे देखने में आया है--'पूणोतेहितो सेसटठारसाणियोमें ग्रन्थों पर 'सर्वाधिकार सुरक्षित' छपाना भी कहाँ तक गद्दाराणि सत्तकम्मे सव्वाणि परुविदाणि ।'-यह संतन्याय संगत है ? यह भी सोचिए। कम्मपंजिका ताडपत्रीय महाधवल की प्रति के २७वें पृष्ठ ३. समयसार को १५वों 'गाथा का 'संत'? पर पूर्ण हुई है और षट्खंडागम पुस्तक ३ में इसका चित्र १. षट्खंडागम के सातवें सूत्र मे 'मतपरुवणा' पद भी दिया गया है। (देखें-प्रस्तावना, षट्खडागम पुस्तक का प्रयोग मिलता है । इमी पुस्तक के इमी पृष्ठ १५५ पर ३ पृ० १ व ७) अत. इस उद्धरण से इस बात मे तनिक एक टिप्पण भी मिलता है जो तत्वार्य राज वा० के मूल भी सन्देह नही रहता कि प्रसंग मे 'संत' या सत्त शब्द का कुछ अंश है.-'सत्व ह्यव्यभिचारि' इत्यादि । ऐसे ही सत्त्व-आत्मा के अर्थ मे ही है । और मजसं का अर्थ मध्य षखंडागम के आठवें मूत्र में 'सत' पद है। यथा- है जो 'आत्मा को आत्मा के मध्य अर्थ ध्वनित करता हुआ संतपरुवणदाए।' इसके विवरण में 'सत् सत्त्वमित्यर्थ.' आत्मा से आत्मा का एकत्वपन झलका कर आत्मा को अन्य भी मिलता है। इसी पुस्तक मे पृ० १५८ पर कही से पदार्थों मे 'असयुक्त' सिद्ध करता है। उद्धत एक गाथा भी मिलती है। यथा-'अत्थित्त एक बात और । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार की पुणमत अस्थित्तस्स य तहेव परिमाण ।" इस गाथा गाथा २६ मे 'अन्नमय के अर्थ में लिखा है कि--अस्तित्व का प्रतिपादन करने १५ मे 'सतमज्झ' या सत्तमज्झ' का प्रयोग किया है और वाली प्ररूपणा को सत्प्ररूपणा कहते है। यहाँ भी मत' । नियमसार की उक्त गाथा की सस्कृत छाया में अत्तमज्झ शब्द दृष्टव्य है। का अर्थ 'आत्म-मध्य' किया है। इसी प्रकार 'संतमज्म' या उक्त परे प्रसंग से दो तथ्य सामने आते है। पहिला 'सत्तमज्झ' की सस्कृत छाया भी सत्मध्य या सत्त्वमध्यं है यह कि सभी जगह 'सत' का प्रयोग 'सस्कृत के सत् शब्द यह सिद्ध होता है । सोचिए ! बलिा आहै। यह बात भी किसी से छिपी नहीं कि देव-गरण इस लोक में क्यों नहीं प्रा 'संतपरूपणा' में उसी 'सत्' का वर्णन है जिसे तत्त्वार्थ मुत्रकार ने 'सत्संख्पाक्षेत्र' सूत्र में दर्शाया है। यानी जिसे Today we wonder why the devas do not संस्कृत मे 'सत्' कहा वही प्राकृत में 'संत' कहा गया है। & come down to see us on the Earth. But whom अत संत का मत् स्वभावत. फलित है। दूसरा तथ्य यह should they come down to see here today? कि 'सत्' शब्द सत्त्व के भाव मे है, अत सत्, संत, सत्त्व, Who is superior to Greatness on the Earth? सत्त ये सभी एकार्थवाची सिद्ध होते है । पुस्तक के अन्त मे Should they come down to Smell the stench जो 'सतसुत्त-विवरण सम्मत्त' आया है उसमें भी 'मत' का of the slaughter-Houses, the meatshops, प्रयोग सत् के लिए ही है।। stinking kitchens and recking Restaurants ? 'संत' शब्द के प्रयोग 'सत्' अर्थ मे अन्यत्र भी उपलब्ध You have them come down to ignorant Priests, है। यथा-'सतकम्ममहाहियारे-जय. ध. अ. ५१२ व bloated self-complacent tyrants, Lying Statesव प्रस्तावना ध.प्र.पु. पृ. ६६ । men, Dishonest traders or Kings and ---'एसो संत-कम्मपाहुड उवएसो' Emperors, who Respect neither their word -धव० पु० पृ० २१७ ।। nor their signatures ? Devas Have Extremely ----'आयरिय कहियाणं संतकम्मकसायपाहुडाणं. delicate senses. And the strench From the --वही, पृ० २२१ worlds latrines and cess-Pools must be quite सत्त-महाधवलप्रति के अन्तर्गत ग्रन्थ रचना के आदि (शेष पृष्ठ टाइटल ३ पर)
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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