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ओम् अहम्
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परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ।
सकलनयविलासितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष ३५
वीर-सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ जनवरी-मार्च किरण १ वीर-निर्वाण सवत् २५०८, वि० स० २०३८
१९८२ मन को सीख "रे मन, तेरी को कुटेव ग्रह, करन विषय को धाव है। इनहो के वश तू जनादि तं, निज स्वरूप न लखावै है। पराधीन छिन-छोन समाकुल, दुरगति-विपति चखाव है ॥ रे मन० ॥ फरस विषय के कारन वारन, गरत परत दुख पाये है। रसना इन्द्रोवश झष जल में, कंटक कण्ठ छिदावे है ॥रे मन०॥ गन्ध-लोल पंकज मुद्रित में अलि निज प्रान खपावे है। नयन-विषयवश दीपशिखा में, अंग पतंग जरावे है॥रे मन०॥ करन-विषयवश हिरन प्ररन में, खल कर प्रान लुभाव है। 'दौलत' तन इनको, जि को भज, यह गुरु सीख सुनावे है ॥ रे मन०॥
-कविवर दौलतराम जी भावार्थ-हे मन, तेरी यह बुरी आदत है कि तू इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ता है । तू इन इन्द्रियों के वश के कारण अनादि से निज स्वरूप को नहो पहिचान पा रहा है और पराधीन होकर क्षणक्षण क्षीण होकर व्याकुल हो रहा है और विपत्ति सह रहा है। स्पर्शन इन्द्रिय के कारण हाथी गढे में गिर कर, रसना के कारण मछली काँटे में अपना गला छिदा कर, घ्राण के विषय-गंध का लोभी भौंरा कमल में प्राण गँवा कर, चक्ष वश पतंगा दीप-शिखा में जल कर और कर्ण के विषयवश हिरण वन में शिकारी द्वारा अपने प्राण गँवाता है । अतः तू इन विषयों को छोड़ कर जिन-भगवान का भजन कर, तुझे ऐसी गुरु को सीख है।