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________________ जिन-शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग श्री फूलचन्द्र जो सि० शास्त्री, वाराणसी वर्क संगत हैं, जितनी मिहनत आपने की है उतनी कोई करे तो इन पर चर्चा की जा सकेगी।' आपने जिन विषयों पर दृष्टिपात किया है और ऊहापोह पूर्वक विचारणा प्रस्तुत की है वह आपकी गहन हिन डा० एम० पी० पटैरिया चुगरा अध्ययन शीलता का सुस्पष्ट प्रमाण है। आपकी लेखनी में बल है और एक रूपता भी । इन निबन्धो से उक्त जिनधर्म के महत्वपूर्ण प्रसंगों पर तर्क और विद्वत्ताविषयों पर अवश्य ही ऊहापोह के लिए अवसर मिलेगा। पूर्ण प्रामाणिक विवेचना की है। यह चिन्तनभराष्टिआपने जो स्वस्ति के साथ स्वस्तिक की संगति विठलाई है विन्दु शोधार्थियों के लिए पर्याप्त सहयोगी बनेगा।' वह अवश्य आपकी अनूठी सूझ है, उसके लिए आप धन्यवाद के पात्र है। श्री वंशीधर शास्त्री, जयपुर 'ऐसे संकलन से तत्त्वान्वेषी पाठक अवश्य लाभ उठाडा० कस्तूरचन्द्र काशलीवाल, जयपुर येंगे, क्योंकि वे किसी पक्ष से ग्रस्त नही होते । उन्हें गभीर - शास्त्रीय-चिन्तन मनन का सुअवसर मिलेगा।' 'पुस्तक मे जिन प्रश्नों को उठाया गया है, वे वर्तमान । युग के बहुचर्चित प्रश्न हैं, आपने उनका समाधान भी प्राचीन ग्रंथों के आधार पर बहुत तर्कपूर्ण शैली में किया श्री बाबूलाल पाटौदी, इन्दौर है। इससे पुस्तक बहुत ही उपयोगी बन गई है। आपकी 'पुस्तक को मैने पढा, अध्ययनपूर्ण पद्धति से आपने भाषा भी बड़ी प्रांजल होती है तथा विषय का प्रतिपादन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नाय के ग्रन्थों के आलो भी सून्दर ढग से करते है ऐसे उपयोगी प्रकाशन के लिए पश्चात् जो तथ्य प्रगट किये हैं, उससे निश्चय ही मतिभ्रम आपको एवं वीर सेवा मंदिर के अधिकारियो को हार्दिक का निरसन होगा। आपकी खोजपूर्ण शक्ति, स्पष्टवादिता बधाई। वस्तु को रखने का ढंग सभी से मैं प्रभावित हैं।' Dr. B. D Jain Principal J.H.S.S., New Delhi. डा० राजाराम जैन, पारा "जिनशासन....."प्रसंग' वस्तुत: जैन सिद्धान्त के कुछ गूढ रहस्यों का नवनीत है । इसमे पिष्टपेषण नहीं है, कुछ मूल मुद्दों पर स्वतन्त्र दृष्टि से निर्भीक एवं मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार का मौलिक चितन एवं उसका प्रकाशन वीर सेवा मन्दिर के मूल उद्देश्यों के सर्वथा अनुरूप है।' 'Jin Shasan Ke Vicharniya Prasang' by Pandit Padamchand Shastri is a painstaking study in which he has tried to explore, with utmost objectivity, very deep and controversial subjects on Jainology. He has a keen insight and his approach is very objective and rational. The references to the scholarly works of Digamber, Swetamber and other Acharyas bear a testimony to this fact. Panditji has provided a food for further thought to the scholare on I study undoubtedly reveals his originality, depth and mastery on the subject. डा०प्रेमचन्द 'सुमन', उदयपुर 'जिनशासन....."प्रसंग' से यह जानकर बहुत संतोष हुआ कि कम से कम आपने विद्वान् जगत में कुछ मंथन करने की सामग्री तो दी। अन्यथा आज का शोध दिनों दिन मोथरा होता जा रहा है। परिश्रम और पनी दृष्टि का अभाव खलने लगा है। संकलित निबंध स्पष्ट और
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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