SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४३५० ३ उत्तरदायित्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि नवीन पीढ़ी का वह कर्णधार होता है। आचार संहिता के अनुसार पिता को दीक्षा लेने का अधिकार उस समय तक नही रहता जब तक कि उसे पुत्र प्राप्ति न हो जाय। 'सुक्कोमल चरिउ में बताया गया है कि अयोध्या को राजा कीर्तिधवल जिस समय ससार से उदास होकर सन्यास लेने का विचार करता है तभी उसका सुबुद्ध मन्त्री उसे सविधान का स्मरण दिलाता है तथा कहता है कि राजन् यह आपके कुल की परम्परा रही है कि जब तक उत्तराधिकारी पुत्र का जन्म न हो जाय तब तक किसी ने सन्यास नही लिया ।"" अपभ्रंश काव्यों मे पुत्र महिमा का गान कई स्थलो पर किया गया है । 'मेहेसर चरिउ में एक प्रसंग में कहा गया है कि "पुत्र अपने कुलरूपी मन्दिर का दीपक है, यह अपने परिवार का जीवन है, कुल की प्रगति का द्योतक है, परिजनों की आशा-अभिलाषाओं की साकार प्रतिमा है, कुल के भरण-पोषण के लिये वह कल्पवृक्ष के समान है और वृद्धावस्था में वह माता-पिता को हर प्रकार के सकटो से बचाने वाला है। मनेकान्त 'सुकौसल चरिउ' में एक अद्भुत उदाहरण भी मिलता है। जब राजा सुकोशल संसार से उदास होकर संन्यास लेने का विचार करता है तब पुत्रजन्म के अभाव मे उसको सम्मुख भी राज्य छोड़ने सम्बन्धी बाधा उपस्थित हुई। संयोग से उसकी तीस रानियों में से चित्रमाला नाम की एक रानी, गर्भवती थी अतः वह उसके गर्भस्थ बच्चे को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर तथा उसे नृपपट्ट बांध कर स्वयं वनवास धारण कर लेता है । समाज में कवियों को प्राभयदान अपभ्रंश-साहित्य के निर्माण का अधिकाश श्रेयश्रेष्ठियों, राजाओं अथवा सामन्तो को है। मध्यकालीन श्रेष्ठि वर्ग एव सामन्त गणराज्य के आर्थिक एव राजनीतिक विकास के मूल कारण होने के कारण राज्य में सम्मानित एवं प्रभावशाली स्थान बनाये हुए थे। समयसमय पर इन्होने साहित्यकारो को प्रेरणाए एव आश्रयदान देकर साहित्य की बड़ी सेवाएं की है। १. सुकोसल ०३३१८ । २. मेहेसरचरिउ -- २८१-३ । इन आश्रयदाताओं की अभिरुचि बड़ी सात्विक एवं परिष्कृत रूप परिष्कृत रूप में पाई जाती है। भौतिक समृद्धियों एवं भोग-विलास के ऐश्वर्यपूर्ण वातावरण मे रह कर भी वे धर्म, समाज, राष्ट्र साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति अपने दायित्व को विस्मृत नहीं करते महामात्य भरत, उनके पुत्र नन्न एवं कमल सिंह सपवी प्रमृति आश्रयदाता इसी कोटि मे आते है । पायकुमार चरिउ एवं जहसर चरिउ तथा तिसपुरिमगुणाकार जैसे शिरोमणि काव्यों के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त 'अभिमानमेरु' अभिमानचिह्न काव्यपिशाच जैसे गर्वीले विशेषणों से विभूषित थे। उनकी ज्ञान-गरिमा को देखते हुए सचमुच ही वे विशेषण सार्थक प्रतीत होते है । उनका साहित्यिक अभिमान एव स्वाभिमान विश्व-वाङ्मय के इतिहास में अनुपम है किसी के द्वारा अपमान किये जाने पर उस वाग्विभूति ने तत्काल ही अपना राजसीनिवास त्याग दिया और वन मे डेरा डाल दिया । वहाँ अम्मद और इन्द्र नामक पुरुषो द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने कहा था- "गिरिकन्दराओ मे घास खाकर रह जाना अच्छा, किन्तु दुर्जनों की टेढ़ीमेड़ी मोहे सहना अच्छा नही । माता की कोख से जन्मते ही मर जाना अच्छा, किन्तु किसी राजा के भ्रू कुचित नेत्र देखना और उसके कुबचन सुनना अच्छा नही, क्योकि राजलक्ष्मी दुरते हुए चवरो की हवा से सारे गुणों को उड़ा देती है, अभिषेक के जल से सारे गुणों को धो डालती है, विवेकहीन बना देती है और दर्प से फूली रहती है। इसीलिये मैने इस वन मे शरण ली है ।"* राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज (तृतीय) के महामन्त्री भरत कवि के ज्वालामयी स्वभाव को जानता था और फिर भी वह उन्हे मान कर अपने घर ले आया और सभी प्रकार का सम्मान एव आश्वासन देकर साहित्य रचना की ओर उन्हें प्रेरित किया । तिसट्ठिमहापुरिस गुणालकारु' के प्रथम भाग की समाप्ति के बाद कवि पुनः वेद खिन्न हो गया तब भरत ने पुनः कवि से निवेदन किया हे महाकवि, आप खेद खिन्न क्यो है ? क्या काव्य-रचना में मन नहीं लगता ? अथवा मुझसे कोई अपराध बन पड़ा है ? या क्या ३. सुकोसल ४. महापुराण- ११३०४-१५ । 1612–0.
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy