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________________ २६, वर्ष ३५, कि० ३ अनेकान्त आजीविकोपार्जन करना होता है। उसके समरभ समारंभ हिंसा है। धावक को विरोधी हिंसा का त्याग उस स्थिति में और आरंभो मे प्राणि को पीड़ा सभव है। क्योंकि ससार अहभव है जब कोई धर्मध्वसी, आततायी, चोर आदि उस में कोई भी स्थान जीवों से अछूता नही और श्रावक अपनी पर-उसकी सम्पत्ति पर और धर्म आदि पर प्रत्यक्ष या आजीविका से अछूता नही। अतः श्रावक को मर्यादा में परोक्षरूप से हमला करें। वह उनका निराकरण करेगाअहिंसा धर्म का पालन करना होता है और वह इस प्रकार उन्हे भगाएगा। अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना, अणु व्रती स्थूलवती कहलाता है। इसका विशेष इस अन्याय का प्रतीकार करना कर्तव्य कम है। इस कर्तव्य इस प्रकार है का पालन करने मे थावक को जागरूक रहना होता है___हिंसा को चार भागो मे विभक्त कर दिया गया है- उसके परिणाम किसी को कष्ट देने के नहीं होते, अपितु (१) सकल्पी (२) आरभी (३) उद्योगी (४) विरोधी। न्यायपूर्वक अपनी और अपने अधिकारों की रक्षा-नीति संकल्पी हिंसा-क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत की रक्षा-धर्म की रक्षा के होते है। अथवा मनोविनोद आदि के लिए जानबूझ कर किसी जीव हिंसा से बचने और अहिंसा अण व्रत की रक्षा के लिए के प्राणों का हरण करना, धर्म के नाम पर जीवित पशुओं श्रावक के लिए कुछ नियम भी बताए है। उनमे से दोषों की बलि चढाना.शिकार खेलना, मॉस जैसे निन्द्य पदार्थ के के परिहार करने और व्रत को दढ करने वाली भावनाओ लिए पशुओ तथा अन्य जीवो को मारना अथवा जानबूझ के मनन-चितवन एव पालन करने से व्रत मे दृढता होती कर उसे परेशान करके उसके मन को कष्ट पहुचाना संकल्पी है। तथाहि हिंसा है श्रावक इस प्रकार की हिंसा का पूर्णरूप से त्यागी 'बन्ध - वधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा. ।'होता है वह मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुमोदना, सरभ, अर्थात् बन्धन, ताडन, छेदन, अतिभारारोपण और अन्नपान समारंभ, आरंभ सभी प्रकार से इसका त्यागी होता है और निरोध ये अहिंसावत के दोष है। यदि व्रती श्रावक पश स्वप्न मे भी इसमें भाग नहीं लेता। आदि के सबध में उक्त कार्यों को करता है तब भी उसे आरंभी हिंसा-घर गृहस्थी के कार्य श्रावक को करने । हिंसा का भागी होना पड़ता है अर्थात् वह इन दोषों को आवश्यक होते है इनके बिना वह रह नहीं सकता। इन सदा टालता हा रह। ताकि किसी को कष्ट न हो। ऐसे कार्यों में जीवो का घात अवश्यभावी है . परन्तु वह इन ही और भी बहुत से दोष गिनाए जा सकते है। इसके कामों को देखभाल कर-जीवों को बचा कर करता है, साथ-ही-साथ व्रतीधावक मन और वचन की गप्ति-बशीताकि कोई जीव मर न जाए या किसी जीव को कष्ट न करण के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। उसके ऐसा करने से, पहुचे । ऐसी हिंसा, (जो अनजान मे हो जाती है) के लिए अन्य जीवो के प्रति कठोर भावो की सभावना नही रहेगी। श्रावक प्रतिक्रमण-आलोचना और प्रायश्चित करता है- व्रती को ईर्यासमिति-चार हाथ परिमाण भूमि आदि देख उसके मन में दया और करुणा का भाव रहता है। कर चलने का यत्न रखना चाहिए। वस्तुओ के आदानउद्योगी हिंसा-आरभी हिंसा की भाँति इसे भी समझ लेने और निक्षेपण रखने मे जीबो की रक्षा के प्रति जागरूक लेना चाहिए। व्यापार-उद्योग आदि में अनजान मे होने रहना चाहिए। भोजन को भलीभॉति देखभाल कर करना वाली हिंसा का भी श्रावक त्यागी नही होता। वह ऐसा चाहिए, जल भी शुद्ध निर्दोष और वस्त्रपूत-छना हआ व्यापार भी नही करता जिसके मूल मे हिंसा हो। जैसे लेना चाहिए। चमडे, शराब आदि हिंसाजन्य पदार्थों का व्यापार अथवा २. सत्य-प्रणवत: रेशम के कीडे पालने का व्यापार आदि । जो नही है या जो जैसा नहीं है, उसको वैसा कहना विरोधी हिसा-अपने आचार-विचार अथवा सामा- झूठ है। ऐसे वचन का स्थूल रीति से त्याग करना सत्यजिक नियम को भग करने वालों अथवा धन-धान्यादि अणुव्रत है। श्रावक सत्य-अणुव्रत का पालन करता है-वह हरण करने वालों का विरोध-मुकाबला करना विरोधी हास्य में या विनोदभाव से भी कभी गलत नहीं बोलता । डि
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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