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________________ २० वर्ष ३५, कि०३ बांध लेना, कि मैं जीवन भर इस मर्यादा का अतिक्रम नहीं यदि परिणामों में कलुषता बढ़ जाय तो प्रोषध करना और करूँगा। परिमाणकृत क्षेत्र से (मन-वचन-काय, संरंभ, न करना एक जैसा है परिणामों में निर्मलता रखना समारंभ-आरंभ, कृत-कारित और अनुमोदनापूर्वक) किसी उपवास का परम लक्ष्य है, इसमें शरोर आदि से ममत्व भी प्रकार का संबंध न रखना दिग्बत है। इससे अण व्रता को छोडना आवश्यक है । उपवास के दिन बाह्य आरंभजनक रक्षा में सहायता मिलती है। क्रियाओं का त्याग भी आवश्यक है। देशवत: भोगोपभोग परिमारण : दिग्व्रत की मर्यादा मे, काल एवं स्थान की दृष्टियो की ऊपर परिग्रह परिमाण व्रत को बता आए हैं : किए हुए अपेक्षा से, संकोच कर लेना देशव्रत कहलाता है। जैसे कि परिमाण मे भोग-उपभोग संबंधी पदार्थों के सेवन की मर्यादा मैं अपने ग्रहण किए हुए दिग्व्रतो में अमुक, घडी, घण्टा, दिन बाँधना-परिग्रह परिमाणवत में सीमा का संकोच करना, अथवा महीनों तक इतने क्षेत्र का संकोच करता है । आदि। अनर्थदण्ड त्याग: श्रावक को मुनि पद तक पहुंचाने में सहायक होता है और जिन कार्यों से अपने और पराये किसी का लाभ नही इससे तृष्णा तथा ममत्व भाव के त्याग को बल मिलता है। अतिथि संविभाग व्रत : होता हो, अपितु जीवों के घात का प्रसग आता हो या पदार्थों का अप-व्यय होता हो ऐसे कार्यों के त्याग को जिसके आने की कोई तिथि नही होती-उसे अतिथि अनर्थदण्डविरत कहते है । व्रती श्रावक स्नान के लिए उतना कहते है। प्राय इस श्रेणी मे साधु-साध्वी आते है। ही जल प्रयोग में लाएगा, जितने मे उसको पानी की बर्वादी साधारणतया गृहस्थ भी-जैसे प्रतिमाधारी त्यागी-व्रती न करनी पडे। जैसे बहुत से लोग बैठे-बैठे जमीन को । भी इसमे ग्रहण कर लेने चाहिए। श्रावक का कर्तव्य है कि कुरेदते रहते हैं, तिनका तोडते या चबाते रहते है. और वह अतिथियों की सेवा करे। उन्हे आहार, वसतिका आदि मार्ग गमन के समय छडी से व्यर्थ मे पौधों को तोडते चलते से सतुष्ट करे . इससे धर्म सरक्षण को बल मिलता है और है : आदि ऐसे सभी कार्य छोडने चाहिए। प्रभावना व स्थितिकरण में सहायता मिलती है। सामायिक : उक्त प्रकार श्रावक के व्रतो का सक्षेप है। इसके साथ समय आत्मा को कहते है . आत्मा में होने वाली ही श्रावक का कर्तव्य है कि वह सप्त कु-व्यसनो से दूर रहे क्रिया सामायिक है : अथवा समताभावपूर्वक होने वाली तथा प्रतिदिन श्रावक के षट्कर्मों का पालन करे। प्रात. क्रिया सामायिक है। मनुष्य संसार सबंधी क्रियाएँ हर उठने के बाद और रात्रि को शयन से पूर्व अपने दोषो की समय करता है, उसे कुछ काल आत्मा की-अपनी क्रिया आलोचना करे और प्रायश्चित्त लेकर नियम करे कि कल करनी चाहिए। क्योकि आत्मा ही सार है-दूसरे की वह उन दोषो से बचने की कोशिश करेगा जो दोष उसे क्रियाओं से लाभ नहीं। अत जो श्रावक प्रात , मध्याह्न, आज लग गए है : इसके बाद पचपरमेष्ठी का स्मरण करते सायं किसी मन्दिर, वन सामायिक भवन या गृह के एकान्त हुए अपने दैनिक कार्यो मे प्रवृत्त हो और यदि शयन का स्थान में बैठ कर आत्म-चिन्तवन करते हैं, वे सामायिक समय है तो सोए। श्रावक को अन्य अनेक सत्कार्यों का व्रती होते हैं : सामायिक का उत्कृष्ट काल मुहूर्त और सदा ध्यान रखना चाहिए और सदा ही निम्न प्रकार की मध्यम व जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। भावना के अनुसार व्यवहार करना चाहिएप्रोषधोपवास व्रत: 'सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । उपवास शब्द का अर्थ आत्मा के निकट-आत्मामें माध्यस्थ्य भावं विपरीत वृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव।" निवास करना है। और आत्म-वास में भोजन आदि वाह्य क्रियाओं का त्याग देना आवश्यक है अत परिपाटी में क्षेम सर्वप्रजानां, प्रभवतु वलवान् धार्मिको भूमिपाल: । सामायिक में निमित्तभूत होने से नियमित काल के लिए काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् ॥ आहारादि का त्याग प्रोषध या प्रोषधोपवास नाम पा गया दुर्भिक्ष चौर मारीक्षणमपिजगतां मास्म भूज्जीव लोके । है। श्रावक को निर्जल उपवास से पहिले और पिछले दिन जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्व सौख्य प्रदायि । एक-अशन ही करना चाहिए। इससे सहन-शक्ति बढ़ती है : -वीर सेवा मंदिर, दिल्ली
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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