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________________ राजस्थान के इतिहास में जनों का योगदान सदैव एवं सर्वत्र विद्यमान रहे हैं। राजस्थान के सांस्कृतिक, वैश्य आदि को प्रधान पद पर नियुक्त करने का एक और धार्मिक, सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक जीवन में भी कारण था। रणयात्रा के समय यदि स्वयं राजा या तथा उस प्रदेश के इतिहास के निर्माण में उन दोनों जातियों युवराज सेना का नायकत्व नही करता था, तो अन्य राजका महत्वपूर्ण हाथ रहा है। पूत सरदार किसी राजपूतेतर प्रधान की अधीनता में तो डॉ० कानूनगो के शब्दो मे "राजपूतों में सामान्यतया सहर्ष कार्य कर सकते थे किन्तु अपने किमी प्रतिद्वन्द्वी कल शारीरिक बल की ही प्रधानता रहती थी, युद्ध और शाति के मुखिया का सेनापति होना कभी भी स्वीकार नही कर दोनो ही अवसरो के उपयुक्त बुद्धि का उनमे प्रायः अभाव सकते थे । प्रत्येक ठिकाने में भी यही दशा थी। कर्नल टाइ रहता था। मेवाड के राणा कुंभा और सांगा, जयपुर के द्वारा उल्लिखित कोठारी भीमजी महाजन अपरनाम बेग ही मानसिंह और जयसिंह द्वय, जोधपुर के दुर्गादास और कोटा राजपूताने में इस बात का अकेला उदाहरण नही था कि के जालिमसिंह इस नियम के इने गिने अपवाद ही है। राज- जन्म से बनिये की दुकान में आटा तोलने वाला व्यक्ति पूत तो मुख्यतया एक छीन-झपट करने वाला योद्धा था, दोनों हाथो से तलवारे मतकर राजपूतो की बहादुरी को शासन प्रबन्ध की योग्यता का उसमे अभाव था। राजपूनी भी लज्जित कर सकता था ओर शत्र की पत्तियो को नोड इतिहास के पीछे जो कुछ बुद्धि दृष्टिगोचर होती है वह कर युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त कर सकता था।' अधिकांशतया वैश्यो एव कायस्थों की और कुछ अशों में राजपताने के इन वैश्य अथवा जन वीरों में सर्वप्रथम ब्राह्मणों की है। राजपूताने का यथार्थ इतिहास तब तक भामाशाह का कुटुम्ब उल्लेखनीय है । मपर्ण राजस्थान में नही लिखा जा सकता जब तक कि इन राजपतेतर लोगो भामाशाह का नाम आज भी उमी स्निग्ध स्नेह और श्रद्धा के जिन्होंने राजपूत राज्यों के ऊपर शासन किया था और के साथ स्मरण किया जाता है जैसे कि महाराणा प्रताप जिनके हाथ में उनका सपूर्ण नागरिक प्रशासन था, पारि का । वह कापडिया-गोत्रीय ओमवाल जैनी महाजन भारमल वारिक आलेखो की भली-भांति शोध-खोज नहीं की जाती । का पुत्र था। भारमल को महाराणा मागा ने रणथम्भौर के इतिहास ने अब तक केवल राजपूतों को जो गौरव प्रदान अत्यन्त महत्वपूर्ण दुर्ग का दुर्गपाल नियुक्त किया था, और किया है, उसके एक बड़े भाग के न्याय अधिकारी ये लोग थे। वह उस पद पर तब तक आरूढ़ रहा जब तक कि उस दुर्ग राजपूत संगीत आदि का तो प्रेमी होता था, किन्तु हिसाब पर कुमार विक्रमाजीत के अभिभावक के रूप में उसके किताब प्रशासकीय, योग्यता, उद्योग और मितव्ययिता का मामा बूदी के सूरजमल डाडा का अधिकार नही हो गया। उसमें प्रायः अभाव ही होता था। इसके विपरीत वैश्य, भारमल के दोनों पुत्र, भामाशाह और ताराचन्द्र दुर्धर और कायत्थ में ये सब गुण तो होते ही थे, अवसर पड़ने योद्धा एवं निपुण प्रशामक थ। ये दोनो ही हल्दीघाटी के पर वह सफल योद्धा और कूटनीतिज्ञ भी सिद्ध होते थे। प्रसिद्ध युद्ध में महाराणा प्रताप की अधीनता मे वीरता इसके अतिरिक्त राजपूत नरेश राजनीतिक एवं आर्थिक पर्वक लडे थे। राणा प्रताप ने महामनीगम के स्थान में विभागों में किसी अन्य राजपूत के परामर्श पर प्राय. कभी । भामाशाह को अपना प्रधान नियुक्त किया और ताराचंद्र भी भरोसा नहीं करते थे। अतः राजपूत राज्यो मे राज्य को गोद्वार प्रदेश का अध्यक्ष बनाया था। महाराणा की के प्रधान या मुख्यमन्त्री का पद अनिवार्य रूप से वैश्य या विपन्नावस्था में भामाशाह ने गम्राट अकबर के मालवा के कायस्थ के हाथ मे रहता था । अधिकांश राजपून जागीर- मूबे पर आक्रमण किया और वहां से वीस लाख रुपया और दारों कामदार भी वैश्य या कायस्थ ही होते थे । नैणसी बीस हजार अशर्फी लूटकर महाराणा को अर्पित कर दी। मता की बात के अनुसार राजपूतों में एक उक्ति प्रचलित अकबर के अत्यन्त विचक्षण राजनीतिज्ञ एवं कुटनीतिज्ञ थी कि 'यदि अपने भाई को प्रधान बनाओ तो इससे अच्छा मंत्री अब्दुर्रहीम खानखाना ने नाना प्रकार के प्रलोभमों है कि राज्य से हाथ धो बैठो।' यह उक्ति राजपूतो की द्वारा भामाशाह को फुसलाने और मुगल मम्राट की सेमा अनिमत्ता को चरितार्थ करती है। विचक्षण एवं विश्वासी में आ जाने के लिए जी तोड़ प्रयत्न किया, किन्तु भामाशाह
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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