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________________ विश्व धर्म बनाम जैन धर्म 0 विद्यावारिधि डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया पी-एच० डो०-डो० लिट० विश्व धर्म एक योगिक शब्द है। विश्व और धर्म इन अतल, वितल, सुनन, रसातल, तलातल, महानल, और दो शब्दों के समवाय से इस शब्द का गठन-सगठन हुआ है। पाताल ये मान अधोलोक कहलाते है और सात ही भलोक प्राणी के चरने-विचरने सम्बन्धी क्षेत्र विशेष का बोधक माने गए है -भूलोक, भुवलोक, खलोक, महलोक, जनलोक, शब्द वस्तृत विश्व कहलाता है और धर्म शब्द उस क्षेत्र से तपोलोक तथा सत्यलोक । इन सभी को मिलाकर लोक विद्यमान नाना तत्वो और उनमें व्याप्त गुणो, स्वभावा का शब्द का अर्थ स्थिर होता है। परिचायक होता है। इस प्रकार विश्व-तत्वो का स्वभाव विश्व और लोक से भी व्यापक अर्थकारी शब्द है --- कहलाया वस्तुत. विश्व-धर्म । समार । समग्ण समार: अर्थात् ससरण करने को मसार जैन धर्म भी यौगिक शब्द है, जिसका गठन जैन और कहा जाता है। कर्म-विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर धर्म नामक इन दो शब्दों पर आधृत है। जैन शब्द मूलत. की प्राप्ति होना बस्तृत समार कहलाता है। समार में 'जिन' से बना है। 'जिन' शब्द का अभिप्राय है जीतने विश्व और लोक जैसे अनेक क्षत्रमखी शब्दों का ममवेत वाला । जिसने अपने समय कम-कपायों को जीत लिया वह विद्यमान रहता है। इसीलिए ससार शब्द महत्तर महिमा कहलाया जिन और जिन के अनुयायी वस्तुत कहे गए जन । महित है। जनागम मे धर्म की चर्चा करते हुए स्पष्ट कहा है--बत्यु विश्व में अनेक धर्म प्रचलित है जिनमे वैदिक, बौद्ध, सहाबो धम्मा अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । इम जैन, इस्लाम, ईमाई आदि अधिक उल्लेखनीय है। इन मभी प्रकार वस्तु-स्वभाव का सम्यक् विवेचन जैन धर्म कहलाता धर्मों में व्यक्ति विशेष की सत्ता को स्वीकार किया गया है । ईश्वर, बुद्ध, ईशु तथा अल्लाह आदि किसी भी सज्ञा अब यहा विश्व धर्म बनाम जैन धर्म विषयक विशद मे उसे व्यक्त किया जा सकता है। ससार के निर्माण और किन्तु सक्षिप्त अध्ययन और अनुशीलन प्रस्तुत करना सचालन में उसकी भूमिका सर्वोपरि मानी गई है । विश्व वस्तुतः हमारा मूलाभिप्रेत रहा है। की सभी जीवात्माए उस शक्ति के वस्तुत अधीन है, परतु __ जनसमुदाय और समाज में विश्व बोधक जिन शब्दों का जैन धर्म इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता है। उल्लेखप्राय. प्रचलन है उनमे लोक और ससार महत्वपूर्ण है। नीय बात यह है कि जैन धर्म किसी व्यक्ति-शक्ति की देन यद्यपि विश्व, लोक और ससार शब्दो का सामान्य अभि- नही है और ना ही समारी जीवात्माए उसके अधीन है । जैन प्राय उस क्षेत्र विशेष से रहा है जहा प्राणी नाना-योनियो से धर्म वस्तुत स्वाधीनता प्रधान धर्म है । आवागमन के चक्रमण मे लगा रहता है, तथापि ये सभी जैन धर्म मे गुणो की उपासना की गई है। गुणों को शब्द अपना-अपना पृथक अर्थ-अभिप्राय रखते है। ही यहां स्पष्टत इष्ट माना गया है। पांच प्रकार के इष्ट विश्व शब्द का मन्तव्य सामान्यत. सप्त महाद्वीपो के यहां प्रचलित है-अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और समवेत क्षेत्र-कुल से रहा है, इसी को दुनिया भी कहा साधु । प्रत्येक इष्ट विशिष्ट गुणो का समवाय समीकरण गया है। विश्व की अपेक्षा लोक शब्द व्यापक है । स्वर्ग- होता है। पचपरमेष्ठि इसीलिए बदनीय है। जिनमे पच पृथ्वी और पाताल के समीकरण को वस्तुत. लोक शब्द से परमेष्ठियो की बंदना की गई है। इस आद्य मत्र को णमो. कहा जाता है। चौदह संख्या में लोक शब्द विभक्त है।- कार मंत्र कहा गया है। यथा
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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