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________________ १८ वर्ष ३५, कि० २ तदाधित व्यवहार का लोप हो जायेगा अतः पदार्थ में प्रसंग प्राप्त होगा ।" प्रयोजन के अनुसार वस्तु के किसी उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थायें एक धर्म को विवक्षा से जब प्रधानता प्राप्त होती तो वह माननी ही होंगी इसी तरह एक जीव में भी द्रव्याथिक अर्पित या उपनीय कहलाता है और प्रयोजन के अभाव में पर्यायाथिक नय की विषयभूत अनन्त शक्तियों तथा उत्पत्ति, जिसकी प्रधानता नहीं रहती वह अर्पित कहलाती है विनाश, स्थिति आदि रूप होने से अनेकान्तात्मक समझनी मुख्यता और गौणता की अपेक्षा एकवस्तु में विरोधी चाहिए। मालूम पड़ने वाले दो धर्मों की सिद्धि होती है। जिस अन्वय व्यतिरेक होने से भी अनेकान्तरूप है जैसे एक तरह अनेकान्त सब वस्तुओं को विकल्पनीर करता है उसी ही घड़ा सत् अचेतन आदि सामान्य रूप से अन्वय धर्म का तरह अनेकान्त भी विकल्प का विषय बनने योग्य है । ऐसा तथा नया पुराना आदि विशेष रूप से व्यतिरेक धर्म का होने से सिद्धान्त का विरोध न हो इस तरह अनेकान्त आधार होता है उसी तरह आत्मा भी सामान्य और विशेष एकान्त भी होता है। अनेकान्त दृष्टि जब अपने विषय में धर्मों की अपेक्षा अन्वय और व्यतिरेकात्मक है। अनुगता- प्रवृत होती है तब अपने स्वरूप के विषय में वह सूचित कार बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोग के विषयभूत करती है कि वह अनेक दृष्टियों का समुच्चय होने से स्वस्तित्व, आत्मत्व, ज्ञातृत्व, दृष्टत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, अनेकान्त तो है ही परन्तु वह एक स्वतन्त्र दृष्टि होने से अमूर्तत्व, असंख्यात प्रदेशत्व, अवगाहनत्व, अतिसूक्ष्मत्व, उस रूप में एकान्त दृष्टि भी है इस तरह अनेकान्त भिन्नअगुरुलघुत्व अहेतुकत्व, अनादि सम्बन्धित्व, ऊर्ध्वजाति भिन्न दृष्टिरूप इकाइयो का सच्चा जोड़ है। अनेकान्त में स्वभाव आदि अन्वय धर्म है व्यावृताकार बुद्धि और शब्द सापेक्ष (सम्यक) एकान्तों को स्थान है ही। सभी नय प्रयोग के विषयभूत परस्पर विलक्षण उत्पत्ति, स्थिति, अपने-अपने वक्तव्य में सच्चे है और दूसरे के वक्तव्य का विपरिणाम, बुद्धि, ह्रास, क्षय, विनाश, जाति, इन्द्रिय, निराकरण करने मे झूठे है अनेकान्त शास्त्र का ज्ञाता उन काय, योग, बेद, कषाय, ज्ञान, दर्शन, संयम लेश्या सम्यक्त्व नयों का ये सच्चे है और ये मूठे है ऐसा विभाग नही आदि व्यनिरेक धर्म हैं।" करता। अनेकान्त और एकान्त दोनों ही सम्यक् और मिथ्या अनेकान्त छ7 रूप नही है क्यों कि जहाँ वक्ता के के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। प्रमाण के द्वारा अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके बचन विधात निरूपित वस्तु के एकदेश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला किया जाता है वहाँ छल होता है जैसे नवकम्बलोऽयं देवदत्तः सम्यगेकान्त है। एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य यहाँ नव शब्द के दो अर्थ हैं एक संख्या और बूसरा नया धमों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है । एक जो नूतन विवक्षा से कहे गये नव शब्द का ६ संख्या रूप वस्तु में युक्ति और आगम से अबिरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों अर्थ विकल करके वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की को ग्रहण करने वाला सम्यगनेकान्त हैं तथा वस्तु को तत् कल्पना छल कही जाती है किन्तु सुनिश्चित मुख्य गौण अतत् आदि स्वभाव से शून्य कह कर उसमें अनेक धर्मो विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन की मिथ्या कल्पना करना अर्थशून्य वचन विलास मिथ्या करने वाला अनेकान्तवाद छल नही हो सकता क्यों कि अनेकान्त है। सम्यगेकान्त नय कहलाता है और सम्यग- इसमें वचन विधात नहीं किया गया है अपितु यथावस्थित नेकान्त प्रमाण । यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना वस्तुत्व का निरूपण किया गया है। जाय और एकान्त का लोप किया जाय तो सम्यगेकान्त के अनेकान्त संशयरूप नही है-सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर, किन्तु उभय तत्समुदायरूप. 'अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा यदि विशेषों का स्मरण होने से संशय होता है जैसे धुंधली रात्रि एकान्त ही माना जान लो अविनाभावी इतर धर्मों का में स्थाणु और पुरुषगत ऊँचाई आदि सामान्य धर्म की खोप होने पर प्रकृत धर्म का भी लोप होने से सर्वलोक का प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षिनिवास तथा पुरुष.
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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