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________________ अनेकान्त १८, वर्ष ३५, कि० ४ नाक को दबा रही थी । राजा ने कपड़ा निकाला और लिया । कितनी दुर्गंध आ रही है ! राजा ने मंत्री की ओर मुड़कर कहा। मंत्री तत्त्ववेत्ता था। उसने कहा, महाराज ! यह पुद्गलों का स्वभाव है। उसने राजा के भाव की तीव्रता को अपनी भावभंगी से मंद कर दिया। बात वहीं समाप्त हो गई । कुछ दिनों बाद मंत्री ने राजा को अपने घर भोजन के लिए निमंत्रित किया। भोजन के मध्य राजा ने पानी पिया । पानी तुम कहां से लाते हो ? इच्छा होती है कि एक गिलास और पीऊं। मैं तुम्हें अभिन्न मानता हूं, किन्तु तुम मुझे वैसा नही मानते । तुम इतना अच्छा पानी पीते हो मुझे कभी नही पिलाते । "मंत्री मुस्कराया और बोला, "महाराज ! यह पानी उस खाई से लाता हूं, जहां आप ने नाक-भौं सिकोड़ी थी और कपड़े से नाक ढंकी थी।" राजा ने कहा, "यह नहीं हो सकता । यह पानी उस खाई का कैसे हो सकता है !" मंत्री अपनी बात पर अटल रहा। राजा ने उसका प्रमाण चाहा । मंत्री ने उस खाई का पानी मंगवाया। राजा की देखरेख में सारी प्रक्रिया चली और वह पानी वैसा ही निर्मल, मधुर और सुगंधित हो गया जैसा राजा ने मंत्री के घर पिया था । केवल पानी ही क्या, हर बस्तु बदलती है । परिणमन का चक्र बदलता ही रहता है, वस्तुएं बदलती हैं। "ओष" शक्ति की दृष्टि से हम किसी पौद्गलिक पदार्थ को काला या पीला, खट्टा या मीठा, सुगन्धमय या दुर्गन्धमय, चिकना या रूखा, ठंडा या गर्म, हल्का या भारी, मृदु या कर्कश नही कह सकते। एक नीम के पत्ते में वे सारे धर्म बिद्यमान है जो दुनिया में होते हैं । किन्तु "समुचित" शक्ति की दृष्टि से ऐसा नहीं है। उसके आधार पर देखें तो नीम अत्यन्त निर्मल, अत्यन्त मधुर और अत्यन्त सुगन्धित है। राजा बोला, "मंत्री ! पत्ता हरा है, चिकना है। उसकी अपनी एक सुगन्ध है । वह हल्का है और मृदु है। हमारा जितना दर्शन है, वह आनुभविक और प्रात्ययिक है । पर्याय- परिवर्तन के द्वारा वस्तुकों में बहुत सारी बातें घटित होती हैं । उनमें ऊर्जा की वृद्धि और हानि भी एक है। ऊर्जा परिणमन से ही प्रकट होती है । सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि द्रव्य (Mass) को शक्ति (Energy ) में और शक्ति को द्रव्य में बदला जा सकता है। इस द्रव्यमान, द्रव्यसंहति और शक्ति के समीकरण के सिद्धांत की व्याख्या परिणामिनित्यवाद के द्वारा ही की जा सकती है । आइन्स्टीन से पहिले वैज्ञानिक जगत् में यह माना जाता था कि द्रव्य को शक्ति में और शक्ति को द्रव्य में नही बदला जा सकता । दोनों स्वतंत्र हैं । किन्तु आइन्स्टीन के बाद यह सिद्धांत बदल गया । यह माना जाने लगा कि द्रव्य और शक्तिये दोनों भिन्न नहीं, किन्तु एक ही वस्तु के रूपान्तरण हैं । एक पौंड कोयला में और उसकी द्रव्य संहति को शक्ति में बदलें तो दो अरब किलोवाट की विद्युत शक्ति प्राप्त हो सकती है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त शक्ति है । वह द्रव्य चाहे जीव हो या पुद्गल । काल की अनन्त धारा मे वही द्रव्य अपना अस्तित्व रख सकता है जिसमें अनन्त शक्ति होती है । वह शक्ति परिणमन के द्वारा प्रकट होती रहती है। आज के वैज्ञानिक जगत् में जितना प्रयोग हो रहा है, उसका क्षेत्र पौद्गलिक जगत् है । पौद्गलिक वस्तु को उस स्थिति में ले जाया जा सकता है, जहां उसकी स्थूलता समाप्त हो जाये, उसका द्रव्यमान या द्रव्य-संहिता समाप्त हो जाये और उसे शक्ति के रूप में बदल दिया जाये । से है जैन दर्शन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- इन दो नयों से विश्व की व्याख्या की है। हम विश्व को अभेद की दृष्टि से देखते हैं तब हमारे सामने द्रव्य होता है। यह नीम, मकान, आदमी, पशु-ये द्रव्य ही द्रव्य हमारे सामने प्रस्तुत हैं । हम विश्व को जब भेद या विस्तार की दृष्टि देखते हैं तब द्रव्य लुप्त हो जाता है। हमारे सामने होता पर्याय और पर्याय । परिणमन और परिणमन । आदमी कौन होता है ? आदमी कोई द्रव्य नहीं है। आदमी है। कहां ? आप सारी दुनिया में ढूंढें, आदमी नाम का कोई द्रव्य आपको नहीं मिलेगा । आदमी एक पर्याय है। नीम कोई द्रव्य नहीं है । वह एक पर्याय है । दुनिया में जितनी वस्तुओं को हम देख रहे हैं, वे सारी की सारी पर्याय हैं। हम पर्याय को देख रहे हैं, द्रव्य हमारे सामने नहीं जाता । (शेष पृ० २.१ पर)
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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