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________________ भारत के बाहर जैनधर्म का प्रसार-प्रचार → इतिहास-मनीषी डा० ज्योतिप्रसाद जैन जैन धर्म एक ऐमी सनातन धार्मिक एव सास्कृतिक तथा कभी कम और कभी अधिक प्रभाव रहा होने के परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है जो शुद्ध भारतीय होने साक्षी है। जैन मस्कृति ने प्राचीन भारतीय संस्कृति का के साथ-ही-साथ प्राय सर्वप्राचीन जीवत परम्परा है। अभिन्न अग रहते हुए, अपने स्वतन्त्र अस्तित्व एव उसके उद्गम और विकासारभ के बीज सुदूर अतीत--- मौलिकता को भी बहुत कुछ अक्षुण्ण बनाए रखने मे प्रागैतिहासिक काल में निहित है। मानवीय जीवन में मफलता प्राप्त की है। माथ ही, उमने भारतीय साहित्य, कर्मयुग के प्रारम्भ के साथ-ही-साथ इस सरल स्वभावज कला, स्थापत्य ज्ञान-विज्ञान, को अमूल्य देने प्रदान करके आत्मधर्म का भी आविर्भाव हुआ था । वर्तमान कल्प-काल समग्र भारतीय संस्कृति को पर्याप्त समृद्ध किया है, और मे इसके आदिपुरस्कर्ता आदिपुरुष स्वयभू प्रजापति ऋषभदेव अपने बिशिष्ट आचार-विचार एव जीवन-पद्धति से भारतीय थे, जो चौबीस निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थकरो मे मर्वप्रथम थे। जन-जीवन का उन्नयन करने में स्तुत्य योग दिया है। उनका समय अनुमानातीत है। आधुनिक खोजो के आलोक प्राय कह दिया जाता है कि जैनधर्म भारत के बाहर मे यही कहा जा सकता है कि तथाकथित आर्य-वैदिक कभी गया ही नही, किन्तु यह बात मत्य नहीं है कि तप, सभ्यता के ही नहीं, उसकी पूर्ववर्ती प्रागैतिहासिक मिन्धु- त्याग एव मयम पर आधारित, निवृति एव अहिंसा प्रधान घाटी सभ्यता के उदय से भी पूर्व ऋषभादि कई तीर्थकर अन्तर्मखी आत्मसाधना में लीन जैन-माधक का लक्ष्य हो चुके थे। मोहनजोदडो और हडप्पा के अवशेषो में ख्याति-लाभ-पूजा अथवा आत्मप्रचार या धर्मप्रचार भी कायोत्सर्ग-स्थित वृषभलाछन उन दिगम्बर योगिराज को कभी नहीं रहा । जैन माधुचर्या के नियमो की कठोरता भी उपासना प्रचलित रहने के सकेत मिले है। ऋग्वेदादि में इस दिशा में बाधक रही। अतएव जैनधर्म विदेशो मे बौद्ध, भी उनके अनेक प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उल्लेख प्राप्त होते इस्लाम, ईमाई आदि धर्मो की भॉति कभी भी सगठित है। वैदिक संस्कृति के साथ इस आहेत या श्रमण प्रयत्नपूर्वक प्रचारित नहीं हुआ। तथापि जैनधर्म के प्रकाश सस्कृति का दीर्घकालीन सघर्ष एवं आदान-प्रदान एवं प्रभाव ने इस महादेश की सीमाओं का अतिक्रमण चला, और आधुनिक शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से भारत- किया है, इस तथ्य के मकेत भी पर्याप्त उपलब्ध है। वर्ष का इतिहास जब से भी व्यवस्थित रूप में मिलना मेजर जनरल जे० फाग, कर्नल जेम्सटाड आदि कई प्रारम्भ होता है, अर्थात् रामायण तथा महाभारत मे प्रारम्भिक प्राच्यविदो का अनुमान है कि जैनधर्म किसी वणित घटनाओं के युगो से, तब से तो निरन्तर ब्राह्मणीय- यूरोप के स्केडीनेविया जैसे दूरस्थ प्रदेशो मे, तुर्की तथा वैदिक परम्परा के साथ-साथ थमण जैन परम्परा का ऊपरी मध्य एशिया के क्षेत्रो तक पहुंचा था। चौथी शती अस्तित्व इतिहाससिद्ध है। पारस्परिक संघर्ष, उत्थान-पतन, ईसापूर्व मे यूनानी सम्राट सिकन्दर महान तक्षशिला से प्रचार-प्रसार का युगानुसार अल्पाधिक्य रहा। ऐसे समय । कल्याण नामक एक जैन सन्त को अपने साथ बाबुल ले आये जब जैनधर्म महादेश भारतवर्ष की सीमाओं का गया था, जहाँ उक्त सन्त ने सल्लेखना-पूर्वक देहत्याग किया अतिक्रमण करके उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण-पूर्व के भारतेतर था। ईस्वी सन के प्रारम्भ के लगभग भड़ोंच के एक प्रदेशो मे भी प्रसारित हुआ। स्वय इस देश के तो प्रायः श्रमणाचार्य का महानगरी रोम मे जाना और वहाँ समाधिसभी भागो में प्राप्त उसके अवशेष, वहाँ उसके अस्तित्व के पूर्वक चितारोहण करना पाया जाता है। दक्षिण एवं पूर्व
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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