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________________ वर्तमान जीवन में बीतरागता को उपयोगिता २५ आचार्य उमास्वामी ने तो वीतराग भगवान को वीतरागता उसका वर्णन करने से अनुभवहीन पुरुष को किंचित मात्र की प्राप्ति हेतु ही नमस्कार किया है। भी सुख का बेदन नहीं होता। यदि उसे अपने इस जीवन मोक्ष मार्गस्य.........''वंदे तद्गुण लैब्धये। को भी सुखमय व गौरवपूर्ण बनाना है तो स्वयं में स्थित यतमान में व्यक्ति का दुःख का मूलकारण कर्मबन्ध निजात्म तत्व को पहिचानना, मानना, जानना व सुमेरु है और कर्म क्ध का कारण है राग-जहाँ राग पाया सदृश अटल श्रद्धा करना होगा जाता है वहाँ द्वेष युगपत रहता है। रागी और विरागी पूर्ण वीतरागता तो मोक्षरूप ही है, लेकिन यदि वर्तके भविष्य का निर्धारण करने वाली "प्रवचन सार" में मान जीवन में मात्र वीतरागता के प्रति सच्ची एक प्रमुख गाथा है। हो तो जीवन सुख-शांति से व्यतीत हो सकता है तभी तो रत्तो बंधदि कम्म....."जीवाणं जादा णिच्छयदो ॥७६१ जैन व्यक्ति नित्य प्रति वीतरागता के दर्शन को कृतसंकल्प रागी आत्मा कर्म बांधता है और राग रहित आत्मा है और इसलिए उनका जीवन अन्यान्य अपेक्षाओं से सुखकर्मों से मुक्त होता है। इस प्रकार राग दुःख का और मय भी है उनके जीवन में विकलता आकुलता कन अववीतराग स्वतः ही सुख का कारण हो जाता है। सरो पर ही देखी जाती है। इसकी उपयोगिता जहाँ मोक्ष सुख के रूप में स्वय ऐसा तभी हो सकता है जब व्यक्ति अपने जीवन की सिद्ध है वहाँ वर्तमान जीवन में किसी भी प्रकार कम नही। कीमत समझे और इसी वर्तमान जीवन को अनागत जहाँ १२वें गुणस्थान मे सूक्ष्म राग का नाश होकर (पूर्ण) भविष्य की जन्म-मरण करने की शृंखला को कम करने सूख दशा वर्तती है, यह तो वर्तमान जीवन में सम्भव नही के लिए समर्पित कर दे। और ऐसा करने के लिए व्यक्ति इसलिए यह अवस्था तो फिलहाल अनुभव से परे है लेकिा को निरन्नर होने वाले दुख के वेदन को समझना होगा इस प्रक्रिया की शुरुआत तो अभी इस समय आबाल-गोपाल आर सच और सच्चे अर्थों में सुख शातिभिलाषी होना होगा। प्राणिमात्र को ही हो सकती है और उसमें होने वाले वीतरागता अर्थात् एक समय के लिए भी बहिर्मख आशिक सूख के वेदन से इंकार भी नही किया जा सकता। दृष्टि अन्तर्मुख हो-मात्र दृष्टि के अन्तर्मुख होने पर दुःख दृष्टि अन्तमुख हा-मात्र दृष्टि क अन्त जैन धर्म के दो ही मुख्य उपदेश है, जिनकी विलक्षगता परेशानी आकुलता-विकलता के छू मंतर होने की प्रक्रिया को देखकर हम अन्य भारतीय धर्म व दर्शनों से जैन धर्म आरम्भ हो जाती है। इस प्रकार वीतरागता तत्काल सुखदायी है कोई अनुभव तो करे। को भिन्न कर सकते है वह है स्वतत्रता व वीतरागता पर । "युगल जी का एक वाक्य समय-समय पर मस्तिष्क से (द्रव्य-कर्म, नो कर्म, भाव-कर्म)-भिन्न निजात्म तत्व को आदोलित करता है। "एक क्षण भी जीओ, गौरवपूर्ण के प्रति सच्ची श्रद्धा व एकत्व बुद्धि होने पर "आत्मानु जीवन जीओ" ठीक ही तो है सुखमय जीवन का दूसरा भूति" होती है और इसी के द्वारा वीतरागता की प्राप्ति नाम है गौरवपूर्ण जीवन; और यह 'गौरवपूर्ण सुखमय होती है इस काल में जिस आंशिक सुख का वेदन होता है गुणात्मक रूप से वह मोक्ष में प्राप्त होने वाले अनन्तगुणा जीवन में वीतरागता को अपनाने के साधन यद्यपि मख में समानता रखता है इस प्रकार वीतरागता नितान्त सख के साधन वीतरागी देव (वीतरागी मत) पर्वापर "वैयक्तिक" हो जाती है लेकिन अध्यात्म की शुद्ध दृष्टि के विरोध रहित बात करने वाले पवित्र शास्त्र व वीतरागी बिना आत्म तत्व व वीतरागता समझ में नही आती। पथ पर चलने वाले बिरागी साधु जैन धर्म में सरागता " """ इस सुख का नकारात्मक कारण राग द्वेष रूप आत्मा की पूजा नहीं होती। बाहरी देश व आडम्बर की पूजा केबिकारी परिणामों का अभाव सकारात्मक रूप से नही. पजा है वीतरागी सर्वशव हितोपदेशी की। वीतरामी निजात्म तत्व के प्रति सच्ची श्रद्धा है। "वीतरागता"- भगवान शुद्ध सिद्धात्मा सदा ही सुख सागर से निमग्न है रागद्वेष से रहित संवेदन अर्थात् उपयोग का अन्तर्मुखी भक्तों की भक्ति से निस्पृह वीतरागी व्यक्तित्व में न पूजारी होकर निजात्म तत्व में स्थिर होना है। इस एक समय के के प्रति राग है और न निंदक के प्रति द्वेष । सदा मात्र अनुभव में होने वाले आंशिक सुख की महिमा शब्दातीत है शाता दृष्टा व सुख सागर में लीन रहने वाले देव है। ऐसे
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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