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________________ २६, वर्ष ३५, कि २ अनेकान्त वीतरागी देव को "जीवन आदर्श" के रूप में स्वीकार कर व साख होती है। सदा स्थित एव समतापूर्ण दृष्टिकोण और प्रेरणा ग्रहण कर साधक उस आदर्श की ओर बढ़ अपनाने वाले व्यक्ति का मानस अपने निर्धारित क्षेत्र तक सकता है और सुखी जीवन का बीजारोपण कर सकता है। सीमित रहता है और उसे सबधित क्षेत्र में ही ध्यान के भगवान के लक्षण स्पष्ट करने में प्रथम सकेत वीतरागता संकेद्रित रखने में सहायता मिलती है। इस प्रकार व्यक्ति की ओर है। जैसा कहा है एक और व्यर्थ की बकवाद से बचता है दूसरी ओर कम जो रागद्वेष विकार वजित लीन आत्मध्यान मे। समय मे अधिक महत्वपूर्ण कार्य मे सफलता प्राप्त करता है : वे वर्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ॥ रागद्वेष की उत्पत्ति अज्ञान द्वारा होती है किन्तु इसका इतना ही नही वीतरागी अहंत परमात्माओ द्वारा अपराधी स्वय आत्मा है और यह ज्ञात होते ही कि मैं ज्ञान कहा गया सागर सदृश विस्तृत उपदेश वीतरागता के जल हू, अज्ञान अस्त हो जाता है। इस प्रकार वीतरागता की से आप्लावित है। जिसके अवगाहन से भव्य जीव शुद्ध । उपलब्धि मे शुद्ध ज्ञान का बहुत बड़ा कारण है किन्तु यह होता है । भागचन्द जी ने ठीक कहा है शुद्ध ज्ञान शुद्ध दृष्टि वीतरागी दृष्टि से मिल सकता है। सांची तो गंगा ये वीतराग वाणी । शुद्ध दृष्टि को विकसित करने का एक मात्र उपाय वीतअविच्छिन्न धारा निज धर्म की कहानी।। रागी दर्शन, वीतरागी शास्त्र स्वाध्याय, तत्व चिंतन है और वीतरागी पथ पर चलने वाले सच्चे गुरु तो साक्षात इसके लिए इस दिशा में अपना जीवन समर्पित करने का वीतरागता के प्रतीक व पोषक है उन्होने तो इष्टानिष्ट सकलप करना होगा। इस प्रकार वीतरागी दृष्टि विकसित की कल्पना का मूलोच्छेद कर दिया है । उनकी समता का कर अवश्य ही अन्तर में विद्यमान निज वीतराग तत्व को उल्लेख किया है दौलतराम जी ने छहढाला मे--- प्राप्त कर पूर्ण वीतरागी बनाने का मार्ग प्रशस्त होगा। अरि मित्र महल मशान कंचन कांच निन्दन थुति करन। यहां एक कवि की पक्तितयाँ सचमुच प्रेरणादायी लगती हैअर्धावतारन असि प्रहारन में सदा समता धरन ।। राग से फूला हुआ तू, द्वेष मे भूला हुआ तू । समता वीतरागता की पोषक है समता के अभाव में । कभी आसू बहाता है, कभी खुशियाँ लुटाता है। वीतरागता सभव नही । समता प्रथम चरण है और वीत जिंदगी घट रदी हर पल, अंगुलि मे भरा ज्यो जल । रागता द्वितीय । समता धारण करने पर होने वाले सुख से एक पल रकमोच तो क्या, जिदगी की राह तेरी। झॉक अन्तस मे लगी है, अनोखी निधियो की ढेरी।। कई गुणा सुख वीतरागता अपनाने पर होता है। समता वर्तगन जीवन मे आवश्यकता इसी बात की है कि भौतिक की उपयोगिता केवल आध्यात्मिक जीवन मे नही, समता सभ्यता की इस अधी दौड मे एक पल ठहर कर यह सोचे व सरलता का गुण होने से भौतिक कार्यों में भी सफलता तो सही कि जिस राह पर हम दौड़े चले जा रहे है क्या मिलती है । आकुलता व्याकुलता समता विरोधी है । तद् सचमुच वही मजिल है, जो हम प्राप्त करना चाहते है, जन्य मानसिक दबाव तनाव, विद्वेष परेशानी व दु.खों से क्या वहाँ सुख-शाति मिल सकती है ? इस पर विचार कर छुटकारा समता धारण करने पर ही मिलता है। यही शीघ्र ही अपना गंतव्य पथ निर्धारित कर उस पर चलने समता वीतरागता का मार्ग प्रशस्त करती है और इसी का सकल्प लेने पर ही यह जीवन "जीना" कहलायेगा। समता रूपी भूमि में वीतरागता के पुष्प पल्लवित होते हैं। सचमुच क्या ज्ञान दर्शन सुख अदि अनन्त निधियों के स्वामी जब व्यक्ति के सामने वीतरागता का आदर्श रहता है सम्राट की उपेक्षा तिरस्कार कर और गौरवपूर्ण जीवन को तभी वह परेशानियों व संकटों से बचा रह सकता है। यद्वा तिलांजलि दे रंक का जीवन जीना भी कोई जीना है। संकट माने पर दूसरे व्यक्ति को रागद्वेष से अधिकाधिक व्यक्ति की बुद्धि से जब मोह का पर्दा उठेगा और निज-प्रभु विरत रहने में मदद मिलती है : के दर्शन होगे, वह घड़ी धन्य होगी, वह जीवन सफल होगा व्यवहारिक जीवन में भी यह देखा गया है कि राग- और यही होगी वीतरागता की जीवन में उपयोगिता । देष-निन्दान प्रशंसा से परे रहने वाले व्यक्ति की प्रतिष्ठा -२-घ, २७, जवाहर नगर, जयपुर
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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