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________________ २४ वर्ष २५ कि० ३ अनेकान्त २५. नित्यवचनमनादि परमाण्वर्यमिति तन्न कि कारणम् ? तस्यापि स्नेहादि विपरिणामाभ्युपगमात् न हि निष्परिणामः कश्चिदर्थोस्ति भेदादणुः इति बचनात् । वही, ५२५ १०, पृ०-४६२ । २६. निरवयवारत एकरसवर्णागन्धः वही, ५।२५।१३, पृ० ४६२ । २७. तस्वार्थवार्तिक न चानादि परमाणुर्नाम कश्चिदस्तिर । वही ५।२५।१६ पृ० ४९२-४१३ । २८. वही ५।२५।१६, पृ० ४६२-४९३ । २६. तत्वार्थवार्तिक ५।१।२५ पृ० ४३४ । ३०. देवसेन नयचक्र, गाथा १०१ । ३१. डब्लु०टी० स्टेट्स प्रीक फिलोसफी, पृ० ८८ । ३२. वही । ३३. भारतीय दर्शन, सम्पादक डॉ० न० कि० देवराज पृ० ड५ड | : २४. प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २६८ । ३५. आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वार्थप्रदीपिकावृत्ति, गाथा ७८, पृ० १३३ । ३६. वही । : १७. डब्लू० टी० स्टेट्स ग्रीक फिलोसोफी, पृ० ८ ३८. वही । 1। उपाध्याय बलदेव भारतीय दर्शन, पृ० २४४ । ३६. प्रो० हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा भा० द० रूपरेखा, पृ० २६ । ४०. डब्लू टी० स्टेट्स ४१. वीरसेन धवला पु० पृ० २३ । ४२. द्रष्टव्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि ५।११। ४३. वीरसेन धवला, पु० १३, खड ५, पु० ३, सूत्र ३२, पृ० २३ । ४४. गम्मटसार पृ० १००१ । जीवप्रदीपिका टीका, गा० ५६४, ४५. पञ्चास्तिकाय तत्वप्रदीपिका टीका, गाथा ८० पृ० १३७ । ४६. सद्दो खघप्पभवो खघो परमाणु संगसंगघादो । पुट्टेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादगो णियदो || पचास्तिकाय गाथा ७१ ४७. पद्मप्रभ नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गा० २५ । ४८. भगवती सूत्र, २०१५ १२ । ४६. छष्णद्रव्य तस्वार्थमूत्र ५०३२-३६ । ५०. पूज्यपादाचार्य सर्वार्थसिद्धि, पृ० २२७-२८६ । ५१. डा० मोहनलाल मेहता । जैनदर्शन, पृ० १८५-८६ । ५२. धिको परिणामको च तत्या १-५३७ ॥ ५३. बन्धे समाधिको पारिणामिको । ५। ३६ । समय से ही वह उक्त संस्था के भी परम सहयोगी हो गए, प्राय: प्रारम्भ में १०-१५ वर्ष पर्यन्त उसके मन्त्री भी बने रहे और उसकी गतिविधियों एवं प्रवृत्तियों में सक्रिय रुचि लेते रहे। इतना ही नही, उन्होंने दिल्ली समाज के अनेक सज्जनों को वीर सेवा मंदिर का सदस्य या सहयोगी बनाने में पर्याप्त एवं सफल प्रयत्न किया। मुख्तार सा० की अनेक पुस्तको व ट्रैक्ट आदि के मुद्रण-प्रकाशन की भी व्यवस्था की या कराई। आदरणीय मुख्तार साहब के साथ ला० पन्नालाल जी के जीवन पर्यन्त मधुर संबंध रहे । स्व० बाबू छोटेलाल जी और स्व० साहू शान्तिप्रसाद जी भी ला० पन्नालाल जी को अमूल्य सेवाओ का आदर करते थे। वीरसेवा मन्दिर के दिल्ली में स्थानान्तरित हो जाने (टाइटिल २ का शेषाण ) ५४. बन्धे सत्ति समगुणस्य समगुणः पारिणःमिको भवति, अधिक गुणो हीठास्येति । वही मट्टाकलकदेव : सार्धवार्तिक ५३६४०-५ -प्राकृत जैन शोध संस्थान, वैशाली : ग्रीक फिलोसोफी पृ० १ । १३ ख ५, ०३, ३२, खड सूत्र , के उपरान्त भी उसके प्रति ला पन्नालाल जी का प्रेम पूर्ववत् बना रहा । ऐसे मूक, निःस्वार्थ एवं कर्मठ समाजसेवियों की जैन समाज मे आज अत्यन्त विरलता है। आशा है कि स्व० लाला पन्नालाल जी के कार्यों से प्रेरणा लेकर कोई-न-कोई सज्जन उनकी क्षतिपूर्ति के लिए शीघ्र ही अग्रसर होंगे । हम अपनी ओर से तथा वीर सेवा मन्दिर परिवार की ओर से वीर सेवा मन्दिर तथा साहित्यकारों के चिर सहयोगी स्व० लाला पन्नालाल जैन अग्रवाल के व्यक्तित्व और सेवाओ के प्रति हार्दिक श्लाघा एवं आदरभाव व्यक्त करते हैं । डॉ० ज्योतिप्रसाद जंन
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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