SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन और यूनानी परमाणुवाद : एक तुलनात्मक विवेचन २३ १. श्वेताम्बर मत में गुण-गत विसदृशता रहती है दार्शनिको और चिन्तको ने परमाणु का जितना सूक्ष्म तो कोई भी समपरमाणु दूसरे सम वाले परमाणु को अपने विवेचन प्रस्तुत किया उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है ; अनुरूप कर सकता है अकलक भट्ट ने इस नियम को वैज्ञानिको का परमाणुवाद भी बहुत कुछ जैन परमाणवाद आगम विरुद्ध बतला कर निराकरण किया है। से साम्य रखता है। इस पर और भी तुलनात्मक शोध उपर्युक्त तुलनात्मक विवेचन से स्पष्ट है कि जैन आवश्यक है। सन्दर्भ सूची १. देवेन्द्रमुनि शास्त्री . जनदर्शन म्वरूपा और विश्लेषण १२. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणु. । पृ० १६४-६५। .....'कार्यलिंगश्च ॥ वही, ५२५, २. पोग्गल दव्वं उच्चइ परमाणु णिच्छएण। नियमसार, पृ०-२७४ । गाथा २६ । १३. इति तत्राणवोऽबद्धा... ... .."। वही। ३. परमाण चेव अविभागी। कुन्दकुन्दाचार्य पचास्ति- ८ अणो प्रदेशा न णन्नि ....."प्रदेशमात्रत्वात । काय, गाथा-७५ । सर्घार्थसिद्धि: ५।११, पृ०-२०५ । ४. सव्वेसि खघाण जो अतो त वियाण परमाणू । मो १५. किं च ततोऽल्पपरिमाणभावात् । न हायमेरल्पीया सस्सदो असहो एक्को अविभागि मृत्तिभवो ।। वही, नन्योऽस्ति, " | घही । गाथा ७७ । १६. प्रदिश्यन्त इति प्रदेशा परमाणव । वही २१३८, ५. आदेशमतमुत्तो घादुचदुक्करक कारण जो दु। पृ०-१३८ । सो ओ परमाण परिणाम गुणो मयममहो ।। १७ प्रदेशमात्रभाविस्पर्शादिपर्याय प्रसवसामर्थ्य नाण्यन्ते णिच्चो णाणवकामो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता । शब्द्यन्त इत्यणव. । वही, ५२२५, पृ० २२० । खघाण पि य क्ता पविहता कालसखःण ॥ १८. मौषम्यादात्मादय आत्ममध्या आत्मान्ताश्च । वही, वही, गाथा-७८ और ८० । श२५, पृ० २२० । ६. (क) एयरसवण्णगध दो फास मद्दकारणमगद्द । १६. ... ...| प्रदेशमात्रोऽणु न खरविषाणवदप्रदेश इति । खघरिद दव्व परमाणु त बियाणेहि ।। तत्वार्थवात्तिक, ५।११।४, पृ०-४५४ । वही, गाथा-८१ । २०. यथा विज्ञानमादि मध्यान्ताव्यपदेशाभावेऽस्ति तथा(ख) एयरसगध दो फास त हवे सहावगुण । अणुरपि इति । वहीं, ५३१११५, पृ०-४५४ । २१. तेषामणूणामस्तित्व कार्यलिंगरवादगन्तव्यम् । कार्यआ० कुन्दकुन्द नियमसार, गाथा-२७ । लिंग हि कारण। ७. अत्तादि अत्तमज्झ अत्तत णेव इदिए गेजझ । ना सत्सुपरमाणुषु शरीरेन्द्रिय महाभूतादिलक्षणस्य ___ अविभागीज दव्व परमाणू त विणाणाणाहि ।। कार्यस्य प्रादुर्भाव इति। आ० कुन्दकुन्द नियमसार, गाथा-२७ । वही, ५।२५।१५, पृ०-४६२ । ८. घाउचउक्कस्स पुणो ज हेक कारणति त णेयो। २२. भेदादणुः । तत्त्वार्थमूत्र, ५।२७ । खंघाणां अवसाणो णद्दव्वो कज्ज परमाणू ॥ २३. कारणमेव तदन्त्यमित्यसमीक्षितामिधानम, नितमसार, गा०-२५ । कथञ्चि कार्यत्वात् । ६. नाणोः । तत्त्वार्थसूत्र, ५॥११ । २४. नित्य इति चायुक्त स्नेहादि भावेनानित्यत्वात्। १०. भेदादणुः, वही, ५।२७ । स्नेहादयो हि गुणा: परमाणो प्रादुर्भवन्ति, ११. अनादिमध्योऽप्रदेशी हि परमाणु । वियन्ति च ततस्तत्पूर्वक मस्यानित्यमिति । सभाष्यत्वार्थाधिगम सूत्र, ५।११, पृ०-२५६ । वही, ५२२५७, पृ.४६१ ।
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy