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________________ ८, वर्ष ३५, कि० २ अनेकान्त के यथार्थ-जीवन का रहस्योद्घाटन हो गया। लक्ष्मण- है तथापि अकिंचन-भाव से पीछे नहीं । जीवन्धर स्वामी माला का इच्छुक काष्ठाङ्गार उत्तेजित हो भडक उठा। का वैभव विसर्जन कर मुक्ति-पदवी पाना, रानी विजया युद्ध के लिए उद्यत हो जाने पर वह जीवन्धर के द्वारा का आर्या पद ग्रहण करना इसके विपरीत काष्ठाङ्गार का मृत्यूलोक का पान्थ बन गया। देखिए ! कितनी विचित्रता राज्य-च्युत होना जीवन्धर चम्पू मे प्रयुक्त आकिञ्चन्यहै मानसिक-मनोभावो की ? काश ! यदि वह नृपराज्य की स्वरूप को परिपुष्ट करने वाले ही है। जीवन्धर चम्पू में ओर आकिञ्चन्य रहता तो उसकी यह निकृष्ट दशा न नायक जीवन्धर को शृङ्गारिक रूप में दर्शाया गया है होती। तथापि यत्र-तत्र अकिंचन-तत्व प्रदर्शित होता है जो कि सासारिक परिभ्रमण से निकल कर मानव को मुक्ति- उनके शृङ्गारिक जीवन मे चारचाँद लगा देता है और मन्दिर मे भेज देना जैन कथानकों का उद्देश्य रहना है। एक विलक्षणता उपस्थित करता है। यद्यपि इसमें प्रसङ्गोपात्त विविध भावो का समावेश हुआ --अलीगञ्ज (एटा) (पृष्ठ ५ का शेपाष) ही सबसे बड़ा पाप है, सबसे बडा अधर्म है सबसे बड़ा होती है जागरण चाल होता है आप अपना मालिक बनता अजान है यह किसी अन्य प्रकार से नही मिट सकता परन्तु है। आज तक जिसको नही पाया उसको पाता है जिस जानने वाला अपने आपको जाने अपना सर्वम्व अपना कूडे-कर्कट को पकड रखा था उससे निवृत होता है। जो अहम्पना उस जानने वाले में स्थापित करे तो वह अभी तक व्यवहार मे पर मे जगता था वह अब परमार्थ अपना जो अभी मन सम्बन्धी विकारो मे और शरीर में जगता है जहां अब तक मूच्छित था । घोर अन्धकार मे सम्बन्धी क्रियाओ मे आ रहा है वह मिट कर अपने जानन- सूर्य का प्रकाश दिखाई देता है। अब अन्धकार नही रहने पर्न रूप निज स्वभाघ में आये तो नकली मै का अभाव का। चाहे कितना ही गाढा क्यो न हो प्रकाश की किरण ने हो और असली मै की प्राप्ति हो जोकि वास्तव मे ब्रह्मोस्मि उसको भेद दिया है। शरीर रहता है और अन्य भाव भी है और वही पारिणामिक भाव है वही निज भगवान आत्मा रहता है परन्तु मै नही रहता। मै मिट जाता है । यह मै है। जिसको जानने से धर्म की शुरुआत होती है-साक्षी ही निज परमात्मा से मिलने में रुकावट थी, मै मिट गया। भाव जागृत होता है। निजस्वभाव के प्रति मूर्छा दूर मुक्ति का सच्चा हेतु 'यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्याऽऽत्मा। दृगवगमचरणरूपः स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति हि जिनोक्तिः ॥' जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वरूप आत्मा मध्यस्थभाव को प्राप्त होकर आत्मा को आत्मा के द्वारा, आत्मा में देखता और जानता है वह निश्चय से (स्वयं) मुक्ति का हेतु है, ऐसी सर्वज्ञजिन भगवान की वाणी है।
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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