SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन परम्परा में निक्षेप पद्धति प्रशोक कुमार जैन एम० ए० शास्त्री (शोध छात्र) प्राचीनकाल में ही जैन परम्परा में पदार्थ के वर्णन की ने निक्षेप के ४ भेद बतलाये है कि सातों तत्वार्थ नाम, एक विशेष पद्धति रही है। जनदर्शन के अनुसार वस्तु स्थापना, द्रव्य, भाव निक्षेप के द्वारा व्यवहार मे आते हैं अनन्त धर्मात्मक है उम अनन्त धर्मात्मक पदार्थ को व्यव- इसीलिए प्रत्येक तत्वार्थ चार प्रकार का होता है जैसे नामहार में लाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नो मे निक्षेप का । जीव, स्थापना-जीव, द्रव्य-जीव, भाव-जीव । द्रव्य अनेक भी स्थान है। जगत मे व्यवहार तीन प्रकार से चलते है स्वभाव वाला होता है उनमे से जिम स्वभाव के द्वारा वह कछ व्यवहार ज्ञानाश्रयी अर्थात् ज्ञान पर आधित होते है ध्येय या ज्ञेय, ध्यान या ज्ञान का विषय होता है उसके लिए कुछ शब्दाश्रयी अर्थात् शब्दो के ऊपर आश्रित होते है और एक भी द्रव्य के ४ भेद किये जाते है निक्षेप के ४ भेद हैं छ अर्थाश्रयी होते है। अनन्त धर्मात्मक वरतु को सव्यव- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ।" मूलाचार में" सामायिक हार के लिए उक्त तीनो प्रकार के व्यवहारी मे बाटना के तथा त्रिलोक प्रज्ञप्ति मे मङ्गल के नाम, स्थापना, द्रव्य, निक्षेप है। निक्षेप के बारे में अनेक दार्शनिको ने विभिन्न क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छह निक्षेप किये है।" विचार प्रस्तुत किये है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से आवश्यक निर्यक्ति में इन छह निक्षेपो मे बचन को और जीवादि पदार्थो का न्यास करना चाहिए।' सशय, विपर्यय जोडकर सात प्रकार के निक्षेप बताये है । यद्यपि निक्षेपों और अनध्यवसाय मे अवस्थित वस्तु को उनमे निकालकर के सभाव्य भेद अनेक हो सकते है और कुछ ग्रन्थकारो ने जो निश्चय मे क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते है' अथवा किये भी है परन्तु कम से कम नाम, स्थापना, द्रव्य और बाहरी पदार्थ के विकल्प को निक्षेप कहते है । अप्रस्तुत का भाव इन चार निक्षेपों को मानने में सर्वसम्मति है। निराकरण करके प्रस्तुत अर्थ को प्ररूपण करने वाला अकलदेव ने निक्ष पो का विवेचन करते हए लिखा है कि निक्षेप होता है।' अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निक्षेप पदार्थो के विश्लेषण के उपायभूत है उन्हे नयो द्वारा प्ररूपण करने वाला निक्षेप है।' श्रु त प्रमाण और उसके ठीक-ठीक समझकर अर्थात्मक ज्ञानात्मक और शब्दात्मक भेद नयो के द्वारा जाने गये द्रव्य और पर्यायो का सङ्कर भेदो की रचना करनी चाहिए।" व्यतिकर रहित कथन करने को निक्षेप कहते है। प्रमाण नाम क्षेत्र निक्षेप-जीव-अजीव और उभयरूप कारणो और नय के विषय मे यथायोग्य नामादि रूप से पदार्थ की अपेक्षा से रहित होकर अपने आप में प्रवृत हुआ क्षेत्र निक्षेपण करना निक्षेप है। युक्ति के द्वारा संयुक्त मार्ग में यह शब्द नाम क्षेत्र निक्षेप है । वह नाम निक्षेप वचन कार्य के वश से नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव मे पदार्थ और वाच्य के नित्य अध्यवसाय अर्थात् वाच्य-वाचक संबंध की स्थापना को आगम मे निक्षेप कहा है। नय तो गोण के सार्वकालिक निश्चय के बिना नहीं होता है इसलिए और मुख्य की अपेक्षा रखता है इसीलिए वह विवक्षा सहित अथवा तदभवसामान्य निबन्धनक ओर सादृश्य सामान्य है। नय सदा अपने (विवक्षित) पक्ष का स्वामी है अर्थात् निमितक होता है इसलिए अथवा वाच्य-वाचक रूप दो वह विवक्षित पक्ष पर आरूढ़ रहता है और दूसरे प्रतिपक्ष शक्तियों वाला एक शब्द पर्यायाथिक नय में असंभव है इसनय की भी अपेक्षा रखता है, निक्षेप में यह बात नहीं, यहा लिए द्रव्याथिक नय का विषय है।" किसी अन्य निमित्त पर तो गौण पदार्थ मे मुख्य का आक्षेप किया जाता है इस- की अपेक्षा न कर किसी द्रव्य की जो संज्ञा रखी जाती है लिए निक्षेप केवल उपचरित है नय तो ज्ञान विकल्प रूप है वह नामनिक्षेप है।" संज्ञा के अनुसार गुणरहित वस्तु में और निक्षेप उसका विषय भूत पदार्थ है ।" अमृतचन्द सूरि व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा को नाम
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy