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________________ विश्व धर्म बनाम जैन धर्म १६ है। इस विश्व व्यापी समस्या का समाधान अनेकात और कष्ट पहुंचाने वाली असावधानी को द्रव्य हिंसा कहा जाता स्यावाद को जानने और मानने मे सहज मे हल हो जाता है। इस प्रकार द्रव्य हिसा स्थूल है और भाव हिंसा सुक्ष्म । है। फलस्वरूप अनेकमुखी संघात्मक परिस्थितियो मे जिस प्रकार किसी चोरी करने वाले चोर की स्वय भी समता और सौहार्द का वातावरण स्थिर कर आदर्श की चोरी होती जाती है अर्थात् उसकी अचौर्य वृत्ति की चोरी स्थापना होती है। हुआ करती है उसी प्रकार हिंसक को अहिंसक वृत्ति किसी प्राणी मात्र के विकास और ह्रास हेतु जैन धर्म का प्रकार की हिंसात्मक मनोवृत्ति उत्पन्न होने पर प्रायः एक और सिद्धान्त है- अहिंमा । अहिंसा मूलत आत्मा का प्रच्छन्न हो जाती है। स्वभाव है । वह वस्तुत: किसी नकारात्मक स्थिति की जैन धर्म मे द्रव्य हिंसा को चार कोटियों प्राय विभक्त परिणति नही है अर्थात जो हिंमा नही है वह अहिंसा है प्राय. R किया गया है। यथा--१. मकल्पी हिंमा, २. विरोधी हिंमा A TA ऐसा नही है । जो वस्तु बाहर से प्राप्त होती है उसका । ३. आरम्भी हिंमा, ४. उद्योगी हिमा। अपना विभाव और प्रभाव हुआ करता है। प्रभाव और विभाव-व्यापार क्षण-क्षण मे बदलते रहते है । मैं मानता हू हिमा का वह रूप जो जान-बूझकर अर्थात् संकल्प कि जो प्राप्त है वह आज नही तो कल अवश्य समाप्त है पूर्वक की जाती है, वस्तुत सकल्पी हिंसा कहलाती है। मन अस्तु हमे प्राप्त और ममाप्त मे सर्वथा पृथक होकर जो मे वचन से तथा शरीर से स्वय करके, दूसरो के द्वारा व्याप्त है उसे जानना चाहिए। कराकर तथा किमी अन्य व्यक्ति के किए जा रहे कार्य की पोशाक मान्यता स्वी- अनुमोदना करके जो कार्य किया जाता है, वह सकल्पी कार करती है। चाहे महात्मा ईण हो, चाहे अल्लाह हो, हिसा की कोटि में आ जाता है । किसी आक्रमणकारी से अथवा ईश्वर हो अथवा भगवान बुद्ध, सभी के द्वारा अपना, अपन पारवार का, आर धन धम आर समाजअहिंसा को स्वीकारा गया है परन्तु जैन धर्म में अहिंसा को राष्ट्र की रक्षा हेतु जो हिंसा हो जाती है वह वस्तूत. विरोधी जिस रूप में माना गया है उसकी सूक्ष्मता और विशदता हिमा कहलाती है। विचार कर देखे तो लगता है कि वस्तुत अद्वितीय है। यहा अहिंमा के इसी महत्व-महिमा संकलली हिंमा की जाती है जबकि विरोधी हिंमा हो जाती पर संक्षेप मे विश्लेषण करना आवश्यक है। अहिंसा जैन धर्म का प्राणभूत तत्व है। उसकी विशद प्रत्येक व्यक्ति को गृह कार्य में अनेक विधि ऐसे कार्य व्याप्ति मे सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सब करने होते है जिनमे हिंसा हो जाती है। घर की व्यवस्था व्रत समा जाते है । व्रती अहिंसक होता है और जो व्यक्ति भोजनार्थ खाद्य मामग्री का व्यवस्था करना, कपडे बनवाना सच्चा अहिंसक है उसके द्वारा किसी प्रकार का पाप कर्म तथा धुलवाना आदि मे जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी होना सम्भव नही होता । मन, वाणी और शरीर के द्वारा हिंमा कहा जाता है। अहिंसक इस प्रकार के कार्य करते किसी प्रकार की असावधानी अहिंसक प्राय, नही करेगा समय अत्यन्त मावधानी रखता है ताकि कम से कम हिंसा जिससे किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट होने पाए। इसी प्रकार उद्योगी हिंमा मे प्रत्येक गहस्थ पहचे । इसके विपरीत की जाने वाली असावधानी वस्तुतः अथवा व्यक्ति को अपने और अपने आश्रित प्राणियों के हिंसाजन्य होती है। लिए जीवकोपार्जन करने में जो हिंमा होती है उसे उद्योगी हिंसा के मूलतः दो भेद किए गए हैं--यथा-- हिंमा कहा जाता है। मांस-मदिरा का व्यापार, भट्टा आदि १. भाव हिंसा, २. द्रव्य हिंसा । का लगवाना तथा अन्य अनेक इसी प्रकार के काम-काज अपने मन मे स्वयं तथा किसी दूसरे प्राणी को किसी करने से जो हिंसा होती है वह उद्योगी हिंसा के अन्तर्गत प्रकार का कष्ट देने का विचार आना वस्तुत. भाव हिंसा आती है। अहिंसक धर्मों को इस दिशा में पूरी सावधानी कहलाती है। वाणी तथा शरीर से अपने तथा दूमरे को रखनी चाहिए और जीवकोपार्जन के लिए ऐसा कार्य करना
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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