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________________ ६ वर्ष २५, ०३ अगर अपने में अपनापना आ गया तो इन दोनो में अपनापना अहम्पना भर गया यह पर मे अहमपना भरना ही परमात्मा के लिये फाटक खुल गया है इसी को कहते हैं नकली मैं का भरना । छोड़ना क्या है इस मै पने को छोडना है । हम भेष बदली कर लेते है हम कपडे बदली कर लेते है हम कमरे बदली कर लेते है परन्तु मै पना वैसा का वैसा कायम रहता है भेष बदलने से नही अपने को बदलने से क्रान्ति होगी । यह अहम्पना जैसा मन सम्बन्धी और शरीर मयन्धी कार्यों मे जैसा आ रहा है वैसा उस ज्ञाता दृष्टा जानने वाले वाले मे आना चाहिए जब उसमे मै पना आयेगा तब इन दोनों से मैं पना मिटेगा । शुभ-अशुभ रहेगे क्रिया रहेगी परन्तु मैंपना नही रहेगा । मैंपना अपने मे अपने ज्ञायक मे आयेगा मैं कौन जानने वाला साक्षीभूत तब doing मिट जायेगा इन भावो मे और क्रिया में जो doing उठ रहा था वह नही रहेगा परन्तु Being हो जायेगा । जिसका अहम्पना मिट गया उसका ससार मिट गया अब उसके भीतर संसार नही है वह ससार मे है । नाव में पानी नही है परन्तु नाव पानी के ऊपर है यह अहम्पना मेटने का और कोई उपाय नही उसका उपाय है जानने वाले में अपना 'ब्रह्मोऽस्मि' आना स्थापित करना अन्यथा यह अहम्पना सूक्ष्मरूप धारण करके जीवित रह जाता है । अनेकान्त 00 यह अहम्पना है कारण समाज और परन्तु शुभ में तो उस अशुभ में तो फिर भी 'कम पड़ जाता. अन्य लोग उसकी निन्दा करते हैं अहम्पने का छूटना बहुत मुश्किल है कारण समाज भी माला पहना कर उसको उपाधि देकर उसका अहम्पना पुष्ट करते है वह सोचता है क्या इतने आदमी मेरे को मान दे रहे है सब गलती तो नही कर रहे मैने जरूर कुछ किया है। पूजा-पाठ करके हम 'समझते' है हम कुछ आत्मकल्याण के नजदीक आ रहे है परन्तु इस अवता को करके हम और दूर होते जा रहे है । १. ईसीसिचुम्बिआई भमरेहि सुउमारकेसरसिहाइ । ओदसन्ति दमणापमदाओ सिरीसकुसुमाइ ॥ १ ॥४ २. न खलु न खलु वाण सन्निपात्योऽयस्मिन् । मृदुनि मृगशरीरे तूलराशाविवाग्नि ॥ क्व वत हरिणकानां जीवितं चातिलोल । वव च निश्चितनिपाता वज्रसाराः शरास्ते ॥ -अभि० ० शाकु० १।१० ३. आर्तत्राणाय वः शस्त्र न प्रहर्तुमनागसि ॥ ---अभि० ० शाकु० १।११ अस दूसरे प्रकार का अहम्पना अब आया अपने आपमें जो अपना है। ग्रंथकार कहते है कि इस आत्मा में अगर तूने अहम्पना माना तो तेरे यह आत्मा भी परिग्रहपने को प्राप्त हो जायेगी कहना यह था कि मैं और आत्मा दो भोज तो है कि जो मैं हु यही आत्मा है इसलिये अगर मैं और आत्मा में भेद आ रहा है तो आत्मा तेरे मै से पर हो गयी और पर होना हो परिग्रह हो गया इसलिये मैं और आत्मा होकर अभय होना चाहिए जहाँ मैं की अनुभूति होती है वही आत्मा है ऐसा अभेद रूप होगा तब कहने सुनने को कुछ नही रहेगा तू अपने आप मे समा जायेगा। पानी का बुदबुदा पानी मे लीन हो गया । (पृष्ठ ८ का शेषाश) ४. पुण्याश्रमदर्शनेन तावदात्मान पुनीमहे || - प्रथम अङ्क पृ० २८ ५. 'विश्वासोपगमादभिन्नगतयः शब्द सहन्ते मृगा - अभि० शाकु० १११४ नष्टाशङ्गाहरिणशिशवो मन्द्रमन्द चरन्ति ॥ वही १।१५ अस्मद्धनुः | वही २०७ गाहन्तां
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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