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________________ परिणामि-नित्य युवाचार्य महाप्रज्ञ आंधी चल रही है। उसमे जितनी शक्ति आज है। उसका विनाश नही हुआ । ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय को एक उतनी हो कल होगी, यह नहीं कहा जा सकता । जो कल क्रम देता है किन्तु अस्तित्व की मौलिकता में कोई अन्तर थी, उसका आज होना जरूरी नही है और जो आज है नही आने देता । अस्तित्व की मौलिकता समाप्त नही उसका आने वाले कल में होना जरूरी नही है। इस दुनिया होती। इस बिन्दु को पकड़ने वाले "कटस्थ नित्य" के में एकरूपता के लिए कोई अवकाश नही है। जिसका सिद्धात का प्रतिपाद करते है । अस्तित्व के समुद्र मे होने अस्तित्व है, वह बहुरूप है। जो बाल आज सफेद है वे कभी वाली ऊमियो को पकहने वाले "क्षणिकवाद" के सिद्धात काले रहे है । जो आज काले है, वे कभी सफेद होने वाले का प्रतिपादन करते है । जैन दर्शन ने इन दोनों को एक है। वे एकरूप नही रह सकते । केवल बाल ही क्या दुनिया ही धारा में देखा, इसलिए उसने परिणामि-नित्यत्ववाद के की कोई भी वस्तु एकरूप नहीं रह सकती। जैन दर्शन ने सिद्धात का प्रतिपादन किया। अनेकरूपता के कारणों के कारणों पर गहराई से विचार भगवान महावीर ने प्रत्येक तत्व की व्याख्या परिकिया है, अन्तर्बोध से उसका दर्शन किया है। विचार और णामि-नित्यत्ववाद के आधार पर की। उनसे पूछादर्शन के बाद एक सिद्धात की स्थापना की। उसका नाम “आत्मा नित्य है या अनित्य । पुद्गल नित्य है या है-"परिणामि-नित्यत्ववाद"। अनित्य !" उन्होने एक ही उत्तर दिया, “अस्तित्व कभी इस सिद्धात के अनुसार विश्व का कोई भी तत्व सर्वथा । समाप्त नहीं होता । इस अपेक्षा से वे नित्य है । परिणाम नित्य नही है। कोई भी तत्व सर्वथा अनित्य नही है। का श्रम कभी अवरुद्ध नही होता, इम दृष्टि से वे अनित्य प्रत्येक तत्व नित्य और अनित्य-इन दोनो धर्मों की बात है। समग्रता की भ.पा में वे न नित्य है और न अनित्य, स्वाभाविक समन्विति है। तत्व का अस्तित्व ध्र व है, इस- किन्तु नित्यानित्य है। लिए वह नित्य है । ध्रुव परिणनमन-शून्य नहीं होता और वत्त मे दो प्रकार के धर्म होते है-सहभावी और परिणमन ध्र व-शून्य नहीं होता । इसलिए वह अनित्य भी क्रमभावी । महभावी धर्म तत्व की स्थिति और क्रमभावी है । वह एकरूप मे उत्पन्न होता है और एक अवधि के थमं उसकी गतिशीलता के मुचक होते है। सहभावी धर्म पश्चात् उस रूप से च्युत होकर दूसरे रूप में बदल जाता "गुण" और क्रमभावी धर्म "पर्याय" कहलाते है । जैन है। इस अवस्था मे प्रत्येक तत्व उत्पाद, व्यय और धौव्य दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र है कि द्रव्य-शून्य पर्याय और पर्यायइन तीनों धर्मों का ससवाय है। उत्पाद और व्यय-ये। शून्य द्रव्य नही हो सकता । एक जैन मनीषी ने कूटस्थदोनों परिणमन के आचार बनते है और धौव्य उसका नित्यदादियों से पूछा, “पर्याय-शून्य द्रव्य किसने देखा ! अन्वयीसूत्र है। वह उत्पाद की स्थिति में भी रहता है और कहा देखा ! कब देखा ! किस रूप में देखा ! कोई बताये व्यय की स्थिति में भी रहता है । वह दोनो को अपने साथ तो सही।" उन्होंने ऐसा ही प्रश्न क्षणिकवादियो से पूछा जोड़े हुए है। जो रूप उत्पन्न हो रहा है, वह पहली बार कि वे बताए तो सही कि द्रव्य-शून्य पर्याय किसने देखा ! ही नही हो रहा है और जो नष्ट हो रहा है वह भी पहली कहा देखा ! कब देखा ! किस रूप में देखा ! अवस्थाबार ही नही हो रहा है । उससे पहले वह अनगिनत बार अवस्थावान और अवस्थावानविहीन अवस्थाएं-ये दोनों उत्पन्न हो चुका है और नष्ट हो चुका है। उसके उत्पन्न तथ्य घटित नही हो सकते । जो घटनाकम चल रहा है, होने पर अनित्य का सुजन नहीं हुआ और नष्ट होने पर उसके पीछे कोई स्थायी तत्व है। घटना-कम उसी में चल
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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