SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६, वर्ष ३५ कि.४ भनेकास रहा है । वह उससे बाहर नही है। तालाब में एक कंकर परिणमन स्वभाव से भी होता है और प्रयोग से भी। फेका और तरगें उठी। तालाब का रूप बदल गया। स्वाभाविक परिणमन अस्तित्व की आंतरिक व्यवस्था से ल शात था, वह कुछ हो गया, तरगित हो गया। होता है। प्रायोगिक परिणमन दूसरे के निमित्त से घटित तरंग जल में है। जल से भिन्न तरग का कोई अस्तित्व होता है। निमित्त मिलने पर ही परिणमन होता है, ऐसी नहीं है । जल मे तरंग उठती है इसलिए हम कह सकते वात नही है। परिणमन का क्रम निरंतर चालू रहता है । हैं कि तालाब तरंगित हो गया । तरगित होना एक घटना रागत हाना एक घटना काल उसका मुख्य हेतु है। वह (काल) प्रत्येक अस्तित्व है। वह विशेष अवस्थावान में घटित होती है। जलाशय म घाटत हाता है। जलाशय का आयाम है। वह परिणमन का आतरिक हेतु है । इसनही है तो जल नही है । जल नहीं है तो तरग नहीं है। लिए प्रत्येक अस्तित्व में व्याप्त होकर वह अस्तित्व को तरंग का होना जल के होने पर निर्भर है। जल हो और परिणमन शील रखता है। स्वाभाविक परिणमन सूक्ष्म तरग न हो-ऐमा भी नही हो सकता। जल का होना होता है। वह इद्रियो की पकड़ में नहीं आता, इसलिए तरंग होने के साथ जुडा हुआ है। जल और तरंग- अस्तित्व में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों की इन्द्रिय-ज्ञान के दोनों एक-दूसरे में निहित है-जल मे तरग और तरग स्तर पर व्याख्या नहीं की जा सकती। जीव और पुद्गल मे जल । के पारस्परिक निमित्तो से जो स्थल परिवर्तन घटित होता द्रव्य पर्याय का आधार होता है। वह अव्यक्त होता है, हम उस परिवर्तन को देखते है और उसके कार्य-कारण है, पर्याय व्यक्त । हम द्रव्य को कहा देख पाते है । हम की व्यवस्था करते है। कोई आदमी बीमारी से मरता है, देखते है पर्याय को। हमारा जितनाज्ञान है, वह पर्याय का । कोई चोट से, कोई आघात से और कोई दूसरे के द्वारा ज्ञान है । मेरे सामने एक मनुष्य है । वह एक द्रव्य है । मै' मारने पर मरता है। बिमारी नही, चोट नहीं, आघात उसे नही जान सकता। मै उसके अनेक पर्यायो में से एक नही और कोई मा ही पाला भी नही, फिर भी वह मर पर्याय को जानता हूं और उसके माध्यम से यह जानता हू जाता है । जो जन्मा है, का मरना निश्चित है। मृत्यु कि यह मनुष्य है। जब आख से उसे देखता हू तो उसकी एक परिवर्तन है। जीवन मे उसकी आतरिक व्यवस्था आकृति और वर्ण-इन दो पर्यायो के आधार पर उसे निहित है। मनुष्य जन्म से पहले क्षण मे ही मरने लग मनुष्य कहता हूं। कान से उसका शब्द सुनता हूं, तब उसे जाता है। जो पहले अण मे नही मरता, वह फिर कभी शब्द पर्याय के आधार पर मनुष्य कहता है। उसकी सम नहीं मर सकता। जो एक क्षण अमर रह जाए, फिर ग्रता को कभी नही पकड़ पाता। आम को कभी मै रूप उसकी मृत्यु नही हो सकती। बाहरी निमित्त से होने पर्याय में जानता हू, कभी गन्ध-पर्याय से और कभी रस वाली मौत की व्यवस्था बहुत सरल है। शारीरिक और पर्याय से । किन्तु सब पर्यायो से एक साथ जानने आदि का मानसिक क्षति से होने वाली मौत की व्याख्या उससे कठिन मेरे पास कोई साधन नही है। गध का पर्याय जब जाना है। किन्तु पूर्ण स्वस्थ दशा में होने वाली मौत की व्याख्या जाता है तब रूप का पर्याय नीचे चला जाता है। इस वैज्ञानिक या अतीन्द्रिय ज्ञान के स्तर पर ही की जा समग्रता के सदर्भ मे मै कहता हूं कि मै द्रव्य को नहीं सकती है। देखता हूं, केवल पर्याय को देखता हूं और पर्याय के आधार पर द्रव्य का बोध करता हूं। कुछ दर्शनिक सृष्टि की व्याख्या ईश्वरीय रचना के हमारा पर्याय का जगत् बहुत लम्बा-चौड़ा है और आधार पर करते है। किन्तु जैन दर्शन उसकी व्याख्या द्रव्य का जगत् बहुत छोटा है। एक द्रव्य और अनन्त जीवन और पुदगल के स्वाभाविक परिणमन के आधार पर्याय । प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के बलय से घिरा हुआ है। पर करता है। सूक्ष्म विकास या प्रलय--जो कुछ भी प्रत्येक द्रव्य पर्यायों के पटल मे छिपा हआ है। उसका घटित होता है, वह जीव और पुद्गल की पारस्परिक बोध कर द्रम को देखना इन्द्रिय ज्ञान के लिए संभव प्रतिक्रियाओ से घटित होता है। काल दोनों का साथ देता ही है। बसपटनाओं में बाहरी निमित्त भी अपना योग
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy