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________________ नियमसार की ५३वों गाया की व्याख्या और अर्थ में भूल (५३वीं) गाथा का वही अर्थ किया है, जो हमने ऊपर इस विवेचन से स्पष्ट है कि नियमसार के संस्कृतप्रशित किया है। उन्होने लिखा है कि 'सम्यक्त्व का बाह्य टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने उल्लिखित गाथा की निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तथा व्याख्या में जिन सूत्र के ज्ञाता पुरुषो को सम्यक्त्व का अन्तरंग निमित्त दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय आदि कहा उपचार से अन्तरग हेतु वतला कर तथा उनसे दर्शनमोहनीय गया है।' इसका भावार्थ भी उन्होने दिया है। वह भी कर्म के क्षयादिक का सम्बन्ध जोड कर महान् सैद्धान्तिक दृष्टव्य है। उसमे लिखा है कि 'निमित्तकारण के दो भेद भूल की है। उसी भूल का अनुसरण सोनगढ़ ने किया है। है--१. बहिरंगनिमित्त और २. अन्तरगनिमित्त । साम्यक्त्व पता नहीं इस भूल की परम्परा कब तक चलेगी ! लगता की उत्पत्तिका बहिरंगनिमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता है कि श्री कान जी स्वामी ने पद्मप्रभमलधारिदेव की इस पुरुष है तथा अन्तरगनिमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व, गाथा (५३) की सस्कृत-व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया। सम्यमिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृति एव अनन्ता वन्धी इसी से उनकी व्याख्या के अनुसार गाथा और व्याख्या के क्रोध, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियो का उपशम, क्षय उन्होने गलत प्रबचन किये तथा गुजराती और हिन्दी और क्षयोपशम का होना है। बहिरग निमित्त के मिलने अनुवादको ने भी उनका अनुवाद वैसा ही भलभरा किया। पर कार्य की सिद्धि होती भी है और नही भी होती, परन्तु आशा है इन भूलो का परिमार्जन किया जायेगा तथा अन्तरङ्ग निमित्त के मिलने पर कार्य की सिद्धि नियम से गलत परम्परा पर चलने से बचा जाबेगा। होती है ॥५३॥', पृ० २० । सम्बोधन अनादि-निधन धर्म की सीमितकालीन प्राचीनता सिद्ध करने में कौन-सा सार है ? बहत हो चका पाषाण और शिलाखण्डों का अन्वेषण । अब ऐसे व्यावहारिक शोध-प्रबंध एवं लेखादि का लेखन भी पिष्टपेषण हा होगा-इनका भी प्रभूत भण्डार हो चुका है। अब तो जैन भूगोल पर शोध को आवश्यकता है आध्यात्मिक और व्यावहारिक विषयों को अन्तरंग में उतारने को आवश्यकता है--जिनकी ओर से लोग आँख मूंद रहे है और वे भक्ष्याभक्ष्य, आचार, व्यवहार तथा देवशास्त्र गुरु की श्रद्धा से विमुख होकर पतन के कगार पर खड़े है। आज तो लोग धार्मिक सभा-सोसायटियों तक में मारपीट पर उतारू होते देखे जाते हैं- उनके सुधार पर थीसिस होने चाहिए। धर्माचार बिना मनुष्य, पशतुल्य है। धर्भाचार अन्तरंग शुद्धि के लिए अभ्यास है। इसलिए धर्माचार की प्रेरणा के लिए-मद्य, मांस, मधु, अण्डा आदि तथा रात्रि भोजन और अनछने जल से हानियाँ दर्शाने वाले व हिंसादि पापों सप्त व्यसनों आदि से विरक्ति दिलाने वाले विषयों पर वैज्ञानिक और सैद्धान्तिक, आर्षक शोध-प्रबंधों की ओर प्रयत्नशील होना चाहिए।
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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