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________________ ४, बर्ष ३५, कि०३ अनेकान्त की रचना अवश्य है। डा. विजयलक्ष्मी के अध्ययन से कि उक्त दोनों ग्रंथ पर्याप्त प्राचीन (लगभग ६ठीं शती ई०) यह भी प्रतीत होता है कि तिरुक्कदेव के सम्मुख कोई के हैं, वे तमिल एवं कन्नडदेश में भी बहुप्रचलित रहैं हैं प्राचीन कथानक रहे, जिनमें कोई प्राकृत कथा भी थी। और उन दोनों में जीवंधर कथानक का ही वर्णन रहा । वे उन्हें ही इन्होंने अपना आधार बनाया था। या उनमे से कोई एक प्राकृत मे अथवा प्राकृत-संस्कृत___ इस सबंध में यह भी ध्यातव्य है कि वादीसिंह भी तमिल मिश्रित भाषा में भी था, यह सभव है। उन्ही को मूलतः तमिलदेश के निवासी थे और तमिल भाषा एव तिरुतक्कदेव ने आधार बनाया और उन्हे ही वादीभसिंह ने साहित्य ते सुपरिचित थे, बल्कि एक अनूथ ति तो यह भी तमिल भाषा मे 'चिन्तामणि' जीवंधर का पर्यायवाची भी है कि जीवकचिन्तामणि का रचनारभ उन्होंने किया था, बतलाया जाता है अतएव तिरुतक्कदेव ने जीवकचिन्तामणि बीच में ही छोड़ दिया और तिरुतक्कदेव ने उसे पूरा लिखा तो वादीभसिंह ने गद्यचिन्तामणि एवं क्षत्रचूड़ामणि किया। इस अनूश्र ति में तो शायद कोई सार नही है लिखे । उन्होंने दोनो प्राचीन ग्रंथो को मान्य किया । किन्तु यह सुनिश्चित है कि जो आधार स्रोत एव जीवधरचपूकार के सामने ऐसी कोई बात नही थी। वह साहित्यिक परंपराए तिरुतक्कदेव को प्राप्त थी, वे मध्य भारतीय और सभवतया तमिल भाषा एव साहित्य वादीभसिंह को भी प्राप्त थीं। वस्तुतः तमिलसाहित्य की से अनभिज्ञ था। उसने तो अपने कथानक को रोचक प्राचीन अनुथतियो मे चूडामणि और चिन्तामणि नामक बनाने के लिए जो आधार, उत्तरपुराण एव गद्यचिन्तामणि दो काव्यग्रन्थों का उल्लेख मिलता है। हमे ऐसा लगता है उसे प्राप्त थे, उन दोनो का उपयोग किया,। सन्दर्भ सूची १. डा० आर० विजयलक्ष्मी ए स्टडी आफ जीवकचिन्ता- ६. डा० पन्नालाल सा० जीवधर चम्पू भा० (ज्ञा० पी० मणि (अहमदाबाद १९८१)। दिल्ली १९६८)। २. ज्योतिप्रसाद जैन-दी जैन सोर्स आफ दी हिस्टरी ७ डा. पन्नालाल मा० धर्मशर्माभ्युदय (भा० ज्ञा० पी० ___ आफ एन्शेंट इंडिया दिल्ली (१९६४) दिल्ली १९७१)। ३. ज्योतिप्रसाद जैन ४ श्रीमद्वावीभसिंह (जै० सि० ८. पं० नाथूराम प्रेमी-जैन साहित्य और इतिह.स भा० जौलाई ८२)। (द्वि० सं०)। ४. ज्योतिप्रसाद जैन जीबधर साहित्य (शोधाक-४६) ६. बी० ए० सालतोर-मेडिकलजैनिज्म (बंबई १९३८) ५. डा० पन्नालाल सा० गद्यचिन्तामणि (भा० ज्ञा० पी० १०. ए० सी० चक्रवर्ती-जैनालिटरेचर इन तमिल (भा० दिल्ली १९६८) ज्ञा० पी० दिल्ली १९७४) । GO सम्यक्त्व 'सम्मत्तसलिलपवहो णिचं हियए पबट्टए जस्स। कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय गासए तस्स ॥' जिसके हृदय में नित्य सम्यक्त्व रूपी जल का प्रवाह होता है, उसके कर्मरूपी धूल का आवरण नष्ट हो जाता है (अतः सम्यक्त्व प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए। 'सम्मत्तस्सरिणमित्तं जिणसूत्तं तस्स जाण्यापरिसा। अंतर हेऊ भरिणदा दंसरणमोहस्स खयपहुदो ।' सम्यक्त्व के बाह्य निमित्त जिनसूत्र और जिनसूत्र के ज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरंग निमित्त दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम, क्षयोपशम आदि हैं।
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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