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________________ जरा सोचिए दिया । जबकि महावीर की देशना पूर्व-तीर्थंकरो की देशना जब आचार्यों ने आहार, औषध, ज्ञान और वसतिका से किंचित् भी भिन्न न थी। महावीर ने भी अन्य तीर्थ- (कही-कही अभय) देने को दान कहा है तब रुपया-पैसा करों की भाति वस्तु-तत्त्व का याथातथ्य --नग्न दिग्दर्शन देना दान में गभित है या आकिंचन्य में यह विचारणीय कराया और वस्तु के सभी धर्मों को कहा । है। फिर भी यदि यह दान में गभित है तो इसमे विधि, प्रश्न है कि तीर्थंकरों ने क्या और कंमा कहा ? तत्त्व द्रव्य, दाता और पात्र पर दृष्टि देना भी तो न्यायोचित चिंतन की गहराई मे जाने पर स्पष्ट होता है कि सभी । है ! यदि दाता अनुकूल है तो उसे विचारणीय है कि जो तीर्थंकरों ने, वीतरागी व निर्विकल्प दशा में होने के कारण । रुपया वह दे रहा है उसके स्रोत क्या है ? वह दान के योग्य -वीतरागभाव से वीतरागतामयी देशना की। उनकी है या नहीं ! पान भी योग्य है या नही ? द्रव्य का उचित देशना 'याथातथ्यं बिना च विपरीतात्' 'अन्यूनमनतिरिक्त' उपयोग होगा या नही? इसी प्रकार पात्र को भी दाता की थी और 'करो या न करो' के सकेत से रहित भी थी। निस्वार्थ भावना व वित्त की न्यायोपात्तता देखनी चाहिए। क्योंकि हाँ या ना का सकेत विकल्पदशा में ही सभव है। पर, आज य सब दखने वाले दाता और पात्र बिरले है दोनों ही आखे मीचकर--स्वार्थपूर्तियों में लिए और तीर्थकरी ने वस्तु के जिस शुद्धस्वरूप को दशाया वह दिए जा रहे है और जो विसगतियाँ समक्ष आ रही हैं वे स्वरूप हर वस्तु के अपने निखालिसपने में समाहित था--- शोचनीय बन रही है-पैसे का दुरुपयोग । यदि ऐसी पर-सयोगो से सर्वथा अछुता और परिग्रही-मिलावटो से परम्पराओ पर अकुश लगे तो धर्म की बहुत कुछ बढ़वारी सर्वथा पृथक् । जिन अन्य धर्म-अगो की हम चर्चा चलाते है हो । उक्त प्रसगो मे यदि सुधारो की अपेक्षा हो तो परिग्रहवे सभी धर्म इम अपरिग्रह के होने पर स्वयमेव उसी मे त्याग का सही मार्ग क्या हो? जरा सोचिए ! समाहित हो जाते है। इसीलिये तीर्थकरो ने मूल पर प्रहार किया और पहिले वे वीतरागी बने । यत -वीतरागता ४. वे जैनी ही तो थे ! (अन्तरग-बहिरग, परिग्रह राहित्य) होने पर अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि जैसे सभी धर्म स्वभावत. फलित हो जाते है। 'उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजाया च निष्प्रतीकारे । अत: जीवो को अन्तरग रागादि और बहिरग धन-धान्यादि धर्माय तनविमोचनमाह सल्लेखनामार्या. ॥' परिग्रहो से विरक्त होना चाहिये । इसीलिए आचार्यों ने निष्प्रतीकारयोग्य उपसर्ग, भिक्ष, बुढापे, बीमारी सभी पापो मे प्रमाद (परिग्रह) को मूलकारण कहा है आदि के कारण धर्म के लिए-धर्मसाधन हेतु शरीर का 'प्रमत्त योगात्।" त्यागना सल्लेखना या समाधिमरण है। क्या कहे ! लोग बड़े व्यवहार चतुर है। उन्हे धर्मात्मा -बड़े शोक में डूब गया देश और धार्मिक जगत् । बनने का चाव भी है और परिग्रह-सचय का भाव भी। जब बाबा विनोबा भावेजी का वियोग सुना। वे देशहित के फलत. उन्होंने ऐसा सरल-मार्ग खोज लिया है कि जिसमे सांप लिये राष्ट्र-पिता बापूजी के आदर्शों पर उनसे कन्धा भिड़ाभी मर जाये और लाठी न टे..वे धार्मिक बने रहे और कर चले और बापूके बाद में भी जीवनपर्यन्त धर्म की आन उन्हें इन्द्रिय-दमन व परिग्रह-त्याग जैसी कठिन साधनाओ को निभाते चले । भू-दान तो उनकी सेवापद्धति का एकमात्र से भी मुक्ति मिली रहे। क्योकि इन्द्रिय-सयम व परिग्रह उजागर रूप था। वे अपने अन्तस्तल में न जाने कितने त्याग दोनों उन्हें कठिन मालुम होते है । अपनी इस इष्ट-पूर्ति ऐसे यज्ञ छिपाये फिरते रहे जो जन-जन हितकारी थे। के लिए वे आज जी जान से जुट गए है और उन्होंने दैनिक जहां भी जैसी आवश्यकता प्रतीत हुई वहीं यज्ञ के अंश कठिन साधनाओं की उपेक्षा कर दान और बाह्य अहिंसा बिखेर दिये। उनकी अहिंसा, करुणा, परोपकार-बुद्धि आदित से नाता जोड़ लिया है। इसमें उन्हें संचय कर अल्प देना आदि की भावन, धार्मिक और पारमार्थिक यशथे। जब होता है-परिग्रह भी बढ़ता है और दानी भी बने रहते है। क जिए पर के लिये, देश के लिये और धर्म के लिए।
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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