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________________ जरा सोचिए ! १. प्राखिर, यश का क्या होगा? आज तो यह प्रवृत्ति देखा-देखी साधारण-सी बनत कहने को यश का बहुत बडा स्थान है, पर वास्तव में जा रही है कि अभिनन्दन हो-चाहे किसी का भी यश है कुछ भी नही । आज और पहिले भी लोग यश- हो। इस कार्य मे यदि ग्रन्थ भेट है तो उसमे काफी खर्च अर्जन के लिए बहुत कुछ करते रहे है । अपनी सामाजिक, होता है और कही-कही तो पैमा एकत्रित करने, ग्रन्थ अन्य-अन्य उपकरणो सबधी आवश्यकताओं की पूर्ति के छपाने की व्यवस्था, यहाँ तक कभी-कभी विक्री की चिन्ता इच्छुक लोग प्राय. कह दिया करते है-तू नहीं तो तेरा भी मुख्यपात्र को ही करनी पडती हो ऐसा भी सन्देह नाम तो रहेगा, नाम स्वर्णाक्षरो मे लिखा जायगा, फोटो बनने लगा है। यदि ऐसा हो तो ऐसे अभिनन्दनो से भी छपेंगे आदि । और मानव है कि यश के लालच मे आकर क्या लाभ मिवाय मान-बडाई सचय के ? अपना सर्वस्व तक देने को तैयार हो जाता है। इतना ही कहने को कहा जाता है-हमे कामना नहीं है, जब क्यो? आज तो लोगो मे होड लग रही है। यश-अर्जन लोग पीछे पड़ जाते है तब विवश स्वीकार करना पडता में एक को दूसरा पीछे छोडना चाहता है । कोई एक लाख है। पर, यदि स्वीकार करना पड़ता है तो उक्त प्रवृत्तियों के देता है तो दूसरा दो लाख उसी यश के लिए देने को तैयार सम्बन्ध मे लोगों को शकाएँ क्यो होती है ? यदि विवश है-वह ऊँचा हो जायगा । त्याग, तप, सेवा, प्रभावना किया जाता है और कामना नही होती तो उत्सव मे जाया आदि जैसे धार्मिक कार्यों के लिए सन्नद्ध व्यक्ति भी 'यश' ही क्यो जाता है ! गर्दन झुका कर मालाएँ क्यो पहिनी रोग के शमन करने में असमर्थ अधिक देखे जाते है। जाती है ? अभिनन्दन स्वीकार क्यो किया जाता है ? ऐसे लोगो में आज जो यह दान की प्रवृत्ति आप देखते है अवमरो पर भूमिगत क्यो नही हुआ जाता | आदि । घट मभी उपकार और कर्तव्य की भावना से हो ऐसा सोचा कभी आपने, कि 'यश का होगा क्या? यदि सर्वथा ती नही है, अधिकाश धार्मिक कार्य और दानादि । अपयश दुखदायी है तो यश भी सुखदायी नही--अपितु यश कार्य यश-कामना और मनौतियो की पूर्ति के लिए किए। मे अभिमान की मात्रा बढ़ने का भय ही विशेष है। क्या जाने लगे है। तीर्थ यात्रा भी मनौतियो तथा दान देकर , __ हा पूर्व पुरूषो के यश का? तीर्थकर प्रकृति को सर्वोत्तम पाटियो पर नाम लिखाने में ही सफल-सी मानी जाने लगी प्रकृति माना गया है, उन जैसा यश.कीति कर्म किसी का हैं। गोया, धर्म और दान कर्तव्य नहीं अपितु व्यापार बन नहीं होता, लेकिन क्या आप बता सकेगे भूतकाल के गए हों-लेन-देन के सौदे हो गए हो। जबकि धर्म और अनतानत तीर्थकरो के यश को, उनके नाम-ग्राम और कार्य व्यापार में घना अन्तर है। आदि को? क्या आप नहीं जानते-जब चक्रवर्ती छह खडों हां, तो कहने को आज एक और नई परिपाटी बड़े की विजय कर लेता है तब वह विजय का झण्डा गाड़नेवेग से प्रबल हो रही देखने में आने लगी है-अभिनन्दनो नाम अकित करने जाता है। और उमे नामांकन के लिए की। किसी का अभिनन्दन हो यह हर्ष का विषय है, गुणी स्थान नहीं मिलता। फलत: वह किसी के यश-अंकन को का गुणगान होना ही चाहिए। पर, अभिनदन आदि मिटाकर अपना सिक्का जमाता है और कालान्तर मे कोई किसका, कौन, कब और कैसे करे? यह प्रश्न ही दूर जा दूसरा उसके सिक्के को मिटाकर अपना सिक्का जमा पड़ा है। लेता है।
SR No.538035
Book TitleAnekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1982
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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