Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 138
________________ जरा सोचिए! १. ये विसंगतियां! अपेक्षाबाद को निर्णायक माना जाता था वहां अब निरदूसरों को दोष देना लोगों का स्वभाव जैसा बन गया पेक्षवाद का प्रभुत्व है, जहां अनेकान्त था वहां एकान्त है। है। कहते हैं-आज संसार मे जो बदलाव आया है, छीना- इस प्रकार इस प्रकार सभी तो विसंगतियाँ इकट्ठी हो गई हैं; जबकि झपटी, आपा-धापी मची हुई है वह सब समय के बदलाव का न धम धर्म सभी विसगतियो से अछूता -वस्तु स्वभाव मे है। प्रभाव है । पर, यह कोई नही बतलाता कि यह सब घटित यदि कही विसंगतिया नजर आती हो तो उन्हें दूर कसे हुआ? जबकि समय, दिन-रात, घडी-घन्टा, मिनट- कीजिये । अन्यथा कही ऐसा न हो कि परिपक्व होने पर सैकिण्ड आदि में कोई बदलाव आया नहीं मालूम देना। ये विमगतिया ही धर्म का रूा ले बैठे। क्योकि बदलती समय तो तीर्थकरों के काल में और उससे बहुत पहिले परम्पराओ से यह स्पष्ट होने लगा है कि-धर्म मे अधर्म काल मे जैमा और जिस परिमाण मे था आज और अब तीव्रगति से घुमपैठ कर रहा है और हम एक-दूसरे का भी वैमा उसी परिमाण मे है। फिर काल-द्रव्य अन्य मंह देख रहे है । हममे जो एक करता है दूसरे भी वही पदार्थों के लिए प्रेरक भी तो नही-हर द्रव्य का परिणमन करने लगते है और करे भी क्यो नही ? कुछ अपवादो को उसका अपना और स्वाभाविक है-'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य छोड, प्राय हम मभी तो एक थैली के चट्ट-बट्टे जैसे है। युक्तं सत् ।' पर, आश्चर्य न करे–बलिदान-निरोधक धर्म के मध्य भी सुना है, पहिले के लोग स्वार्थी उतने नहीं थे जितने बलिदान बैठा है। अधर्म निरोध के लिये सभी तीर्थंकरों परमार्थी । उनकी दष्टि दुसरो के उपकार पर अधिक को भी सर्वम्ब तक बलिदान (त्याग) करना पड़ा। अब धर्मरहती थी जबकि आज बिरले ही मानवो की बिरली ही रक्षा के लिये हमे क्या बलिदान (न्याग) करना है? जरा गतिविधियां परमार्थ के लिये समर्पित है । मनुष्य स्वय मोचिये और करिये । स्वार्थ की ओर दौड़ रहा है और बदनामी से बचने के लिये स्वय ही युग को 'अर्थयुग' या अर्थ के प्रभाव का नाम २. प्रचार किसका और कैसे : देकर बदनाम कर रहा है। जैनधर्म आचार-मूलक है तथा इस में आभ्यन्तर और स्वार्थ के लिए मानव की दौड कहा-कहा है, यह जानने वाह्य दोनो आचारों के पालन का निर्देश है । जिसका अन्तके लिये लम्बे लम्बे व्यायामो की आवश्यकता नही । आज रग राग-द्वेष, मिथ्यात्व, कपायादि से रहित हो, और बाह्यतो मानव कहां नही दौड रहा ? यह आसानी मे जाना जा प्रवत्ति पचेन्द्रिय तथा मन के वशीकरण क्रिया से ओत-प्रोत सकता है, क्योंकि उसकी अ-दौड के क्षेत्र सीमित है और हो वही पूरा जैनी है, वही 'जिन' का सच्चा अनुयायी और दौड़ के क्षेत्र विस्तृत । मानव ने सभी क्षेत्र तो स्वार्थपूर्ति में वही जैन का समर्थक है। यहा तक कि पूर्वजन्म में तीर्थंकरव्याप्त कर रखे है-जो निःस्वार्थ है वे घन्य है। बहुत से प्रकृति का बन्ध करने वाले सभी जीवों को भी इसी मार्ग लोगो ने तो धर्म उपकरणों, स्थानो, और धर्म के नाम पर मे होकर गुजरना पड़ा और वे इस जन्म में भी निवृत्ति होने वाले कार्यक्रमों तक को स्वार्थ-पूर्ति मे अछूता नही रूप इमी प्रवृत्ति में केवलज्ञानी व 'जिन' बन सके। अत: छोडा है। बहुत से लोग दान देते है तो यश-कीनि-नाम के लोगो को 'जिन' व वीतगग की श्रद्धा व रुचि हो, वे लिये, सम्मेलन, जयन्तियों आदि के आयोजन करते है तो जिन-मार्ग पर चलें, जिन और जैनी बनने का प्रयत्न करें यश व अर्थ के लिए, भापण, कथा, प्रचार आदि करते हे यही उत्तम मार्ग है। यश व अर्थ के लिये और धार्मिक-साहित्य प्रकाशन आदि श्रद्धा करने और मार्ग पर चलने के लिये वह सब करते है तो वह भी व्यवसाय के लिये । कोई दूसरो को कुछ करना होता है जो महापुरुषों ने किया और जिसका नीचा दिखाने के लिये समन्वय के नाम पर विरोधी दाणी मूल चारित्र है। यत.-श्रद्धा और ज्ञान दोनो स्वयं भी बोल रहे है तो कही-जहा पहिले वस्तुनिर्णय के लिये जानने व अनुभूति रूप क्रिया होने से स्वयं चारित्र रूप ही

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