Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 136
________________ ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी को सौवीं जन्मतिथि पर क्रान्तिकारी शीतल Dश्री ऋषभचरण जैन "नंगे बदन रहते है । इण्टर या थर्ड मे होंगे। यह और किसी के पैर नही छुये परन्तु ब्रह्मचारी जी के पैर मुझे उनका फोटो रहा । सावला-सा रग है। जरा-जरा कुछ छुने पड़े। मैंने अपने अहंकारवश बहुत कम आदमियों को मुस्कुराते से, खूब मीठे-मीठे से व्यक्ति है। हजारीलाल जी अपने से बड़ा माना लेकिन ब्रह्मचारी जी को मैं मन ही तो तुम्हारे साथ है ही। उन्हें बहुत सत्कार पूर्वक लाना।" मन सदा बहुत बडा मानता रहा। मेरे जीवन की सन् १९२४-२५ की बात है । हरदोई मे ब्रह्मचारी परिस्थितियां कुछ ऐसी रही कि मैं ब्रह्मचारीजी के जीवनजी आने बाले थे । बाबूजी (बै० चम्पतराय जी) ने उन्हे काल में उनकी किसी भी आज्ञा का पालन नहीं कर सका बुलाया था। हमारी और मुशी हजारीलाल जी की ड्युटी और न उनकी कोई सेवा मुझसे बन सकी। लेकिन उनके उन्हें स्टेशन पर 'रिसीव' करने की थी। बाबूजी के उप- बाद मैं उनके कार्य को अवश्य अग्रसर होकर करना रोक्त शब्दो में ही हमने ब्रह्मचारी जी का प्रथम परिचय चाहूंगा । चाहे इसमें मुझे कोई सहयोग दे या न दे। पाया। कुछ ही दिन पहिले ब्रह्मचारी जी समाज- बाबूजी के प्रेरक कुछ हद तक ब्रह्मचारी जी थे और सधार सम्बन्धी घोषणा कर चुके थे। और इस घोषणा ब्रह्मचारी जी की प्रेरक थी वह उत्कृष्ट आत्मा जिसकी ने जैन-समाज में बज्रपात का-सा कार्य किया था। सत्ता में हपे एकनिष्ठ विश्वास है । ___ "जैन-मित्र" और 'दिगम्बर जैन' में ब्रह्मचारी जी के ब्रह्मचारी जी कई दिन हरदोई में रहे । ब्रह्मचारी जी लेख हमने पढे थे । बिल्कुल एक बालक का-सा कौतुहल और बाबूजी दोनो ही महापुरुष थे । परन्तु एक प्रतिमाधारी मुझे ब्रह्मचारी जी मे मिला। अपना यह कौतुहल मैने था और दूसरा केवल एक अणुव्रती गृहस्थ । यह २५ बाबूजी पर प्रकट भी कर दिया था तथा उनसे वादा भी - पट भी कर दिया था तथा उनसे वादा भी या २६ सन् की बात है। बाबूजी का जीवन करीब ले लिया था कि वे एक दिन ब्रह्मचारी जी के दर्शन मुझे १० वर्ष हुए, बदल चुका था। उन्होने अपने व्यस्त जीवन करायेगे। यह उस कहे की पूर्ति थी। में से भी समय निकाल कर जैन धर्म सम्बन्धी बहत 'जन-समाज' के छ.-सात नाम बाबू जी के मुह में से ग्रंथ रच डाले थे । दिगम्बर जैन परिषद' की बुनियाद अकसर निकलते थे । ये नाम थे, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद पड़ चुकी थी और 'दि. जैन महासभा के कुछ सज्जन जी, बाबू देवेन्द्र कुमार आरा वाले, बाबू रतनलाल बाबू जी की अप्रिय आलोचना भी कर रहे थे । बाबूजी में (वकील), लाला राजेन्द्रकुमार (बिजनौरवाले), बावू नीतिमत्ता कुछ कम थी। वे अपनी बात सदा ओजस्वी अजितप्रसाद (एडवोकेट, लखनऊ), बाबू कामताप्रसाद(एटा) और बहुत सीधे ढग पर कह देते थे। 'महासभा' के साथ और बाबू मूलचन्द किसनदास कापड़िया। ब्रह्मचारी जी अपने मतभेद को भी इसी ओजस्वी और सीधे ढंग पर का नाम वास्तव में सबसे अधिक बार उनकी जबान पर उन्होने प्रकट कर दिया था । ब्रह्मचारी जी के साथ उनकी आता था। आज ये मेरे जीवन के अमिट भाग बन गए गाढ़ी मैत्री थी। दोनो मे बहुत-सी और बहुत लम्बी-लम्बी हैं जिन्हें मैं कभी भुलाए नही भूल सकता। और इनगे बाते हुई। कुछ इधर-उधर और कुछ मेरे सामने । मुझे ब्रह्मसे ब्रह्मचारी जी का सस्मरण लिखने का अवसर पाकर चारीजी के समक्ष बाबूजी भी कुछ हलके-हलके लगने लगे। मुझे अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ है। ब्रह्मचारी जी की वह सूरत हमारे मन में घर कर बिल्कुल ठीक उपरोक्त नख-शिख के ब्रह्मचारी जी थे। गई। वे बरामदे में कार के तख्त पर सोते थे और मेरी प्रकृति मे आरम्भ से ही एक खाप तरह की युक्त- बहुत तड़के उठते थे। दिन में एक ही बार भोजन करते प्रांतीय ऐंठ है । मैंने अपने जीवन में बाजी के अतिरिक्त (शेष पृष्ठ आवरण ३ पर)

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