Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 141
________________ ३२, वर्ष ३५, कि० ४ अनेकान्त बाबा ने ससार चक्र को पैनी दृष्टि से परखा था स्थित हो, धर्मात्मा की खोज की जाना चाहिए । यद्यपि फलतः बे अन्तिम परीक्षा तक उत्तीर्ण होते रहे । हल्का वर्तमान अबार पचमकाल मे जीवो में चारित्रमोहनीय के दिल का दौरा पड़ने पर सभाल के प्रयत्न किये गए, देश उपशम-क्षय-क्षयोपशम मे मन्दता लक्षित होती है और वे प्रमुखों ने संबोधन दिये । पर, बाबा ने किसी की न सुनी। व्रत और नियमो की उच्च दशा मे नही पहुच पाते । वे एक सयमी- जैन सयमी को भाँति उस प्रतिज्ञा- तथापि धर्म के वाहकों को उतना तो होना ही चाहिए आस्था पर दृढ़ हो गये जो जन-जन को दुर्लभ होती है। जितना अवती श्रावक में अवश्यम्भावी है। जैसे आजन्म उन्होने औषधि, अन्न, आहार, उपचार आदि सभी से मद्य-मास-मधु का त्याग, पच उदुम्बरो का त्याग, अनछने विरक्ति ले ली। वे अपने मे इस आस्था से दृढ हो गए कि जल और रात्रि-भोजन का मन-वचन-काय, कृतकारितशरीर मरण धर्मा है ---इससे मेरा कोई सरोकार नही-- अनुमोदना से त्याग । यदि देव दर्शन, गुरुभक्ति करने का 'वस्त्राणि जीर्णानि या विहाय।' नियम हो तो और भी उत्तम । जैनी को अबती बम्बा में भी अष्टमूल गुण धारी श्रावको का कर्तव्य है कि धार्मिक प्रसगो मे उत्सव के होना चाहिये-बनगो वहा बडी निधि है । बाबा मे जैन- मुखिया के चुनाव में उक्त बातो का ध्यान करे और जिनमान्य ऐमी कौन-सी विधि नही थी? मोटे रूप से वहुत सी शासन के महत्त्व को समझ धर्मचक्र को प्रभावक बनाने मे विधिया उनमें विद्यमान थी। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्य- सहायक हो । अन्यथा हमने कई वार कईयो के मुख से चर्य और परिग्रह परिमाण, अणुव्रत सभी तो उनमे थे-- उलाहने सुने हैब नाम से भले ही न सही, व्यवहार से वे सच्चे जैन "क्या जिनदेव या गुग भी ऐसे ही मुखिया थे, जैसे श्रावक थे। काश ! हमे सद्बुद्धि मिले और हम व्रत के अमुक धर्म-सभा के अमूक नेता ?----जिनमे 'जैनी' का एक बन्धन में न बधे रहकर भी बाबा की भाति आचरण में भी चिह्न नही था।" 'जैसे नेता वैमी सभा और वैसा ही अणु प्रतों जैसा पालन करने की सीख ले, तो हमे भी बिना प्रभाव' आदि । प्रयत्न के सहज सल्लेखना प्राप्त हो सकती है। जिसका धर्म-उत्मवो के मुखिया बनने का आग्रह आने पर जीवन न्याय नीतिपूर्ण रहे और अन्त मे समाधि-मरण हो, सबधित व्यक्तियो को भी सोच लेना चाहिए कि उक्त सदर्भ वह जैनी नही तो और क्या है ? मेरी दृष्टि मे तो वे जैनी मे वे उस पद के कहाँ तक योग्य है ? धार्मिक प्रसंग मे ही थे। उन्हें सादर नमन और श्रद्धाजलि । मुखियापने के लिए धर्म-विहीन-लौकिक बड़प्पन, लौकिक या राजकीयपद अथवा लौकिक ज्ञान प्राप्त कर लेना कार्य५. और एक यह भी : कारी नही अपितु मुखियापने के लिए या किन्ही धर्म उत्सवो __-धर्म का सच्चा स्वरूप चारित्र अर्थात् आचरण है। के उत्तरदायित्व संभालने के लिए जिन-धर्मानुकूल स्थूल और सम्यक चारित्र का धारक (धर्म को जीवन में आचरण और धर्मविषयक स्थूल ज्ञान होना अनिवार्य हैउतारने वाला) धर्मात्मा है। धर्म और धर्मात्मा दोनो ऊँचे नियमपालक और ज्ञाता हों तो सोने मे सुहागा । जरा परस्पर-सापेक्ष है । फलतः-जहाँ भी धर्म का प्रसंग उप- सोचिए । -संपादक 'अनेकान्त' के स्वामित्व सम्बन्धो विवरण प्रकाशन स्थान-वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ प्रकाशक-वीर सेवा मन्दिर के निमित्त श्री रत्नत्रयधारी जेन, ८ अल्का, जनपथ लेन, नई दिल्ली राष्ट्रीयता-भारतीय प्रकाशन अवधि-मासिक सम्पादक-श्री पपचन्द्र शास्त्री, वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ राष्ट्रीयता-भारतीय। स्वामित्व-वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, नई दिल्ली-२ मैं रत्नत्र धारी जैन, एतद् द्वारा घोषित करता हूं कि मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त विवरण सत्य है। रत्नत्रयधारोन प्रकाशक

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