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२४, वर्ष ३५, कि ४
अनेकान्त
पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि-आदि तीर्थकर सुन्दर कन्याये उनके पास ले आए । जब वे कन्यायें भगवान भगवान् ऋषभदेव ने ५२ आर्य देशो की स्थापना की के लिए रुचिकर नही लगी, तब वे निराश होकर स्वयं थी उसमें कुरु-जांगल देश भी था। इस प्रदेश की अपने आपसे ही द्वेष करने लगी और आभूषण दूर फेंक राजधानी का नाम गजपुर था। सम्भवतः इस प्रदेश भगवान् का ध्यान करती हुई खडी रह गई। अथानन्तर के गङ्गातटवर्ती जगलो में हाथियो का बाहुल्य महल के शिखर पर खड़े हुए राजा श्रेयास ने उन्हे स्नेहहोने के कारण यह गजपुर कहलाने लगा। पश्चात् पूर्ण दष्टि से देखा और देखते ही पूर्वजन्म का स्मरण हो कुरुवश मे हस्तिन् नाम का एक प्रतापी राजा हुआ । उसके आया। राजा श्रेयास महल के नीचे उतर कर अन्त.पुर नाम पर इसका नाम हस्तिनापुर हो गया" । प्राचीन तथा अन्य मित्रजनो के साथ उनके पास आया और हाथ साहित्य में इस नगर के कई नाम आते है, जैसे-जपुर", जोड़ कर स्तुति पाठ करता हुआ प्रदक्षिणा देने लगा। हस्तिनापुर, गजेरावयपुर, नागपुर", आसन्दीवत्, ब्रह्म- भगवान को प्रदक्षिणा देता हुआ राजा श्रेयास ऐसा सुशोस्थल", कुजरपुर" आदि। यह नगर पाण्डवो को अत्यधिक भित हो रहा था, मानो मेरु के मध्य भाग की प्रदक्षिणा प्रिय पा, अत. श्रीग ने इसे पाण्डवो को प्रीतिपूर्वक देता हआ सर्य ही हो। सर्वप्रथम राजा ने अपने केशो से दिया था। जब पान्डव हास्तिनपुर (हस्तिनापुर) में यथा- भगवान के चरणों का मार्जन कर आनन्द के आँसूओ से योग्य रीति से रहने लगे, तब कुरुदेश की प्रजा अपने पूर्व
उनका प्रक्षालन किया, रत्नमयी पात्र से अर्घ्य देकर स्वामियों को प्राप्तकर अत्यधिक सन्तुष्ट हुई। पाण्डवों के ।
उनके चरण धोए और पवित्र स्थान मे उन्हे विराजमान सुखदायक सुराज्य क चालू हान पर दश क सभा वण आर किया, तदनन्तर उनके गुणो से आकृष्ट चित्त हो कलश मे सभी आश्रम धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि को सर्वथा
रखा हुआ शीतल जल लेकर विधिपूर्वक श्रेष्ठ पारण कराई। भन गये। एक बार भीम के एक परिहास से क्रुद्ध होकर उसी समय आकाश में चलने वाले देवो ने प्रसन्न होकर कृष्ण पाण्डवो से रुष्ट हो गये और सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु साधु-साधु, धन्य-धन्य शब्दो के समूह से मिला एव दिग्मडल को राज्य देकर वहा से उन्होने पाण्डवो को क्रोधवश विदा को मुखरित करने वाला दुन्दुभिवाजो का भारी शब्द कर दिया। असमय में वज्रपात समान कठोर कृष्णचन्द्र किया। पाच रग के फूल बरसाए। अत्यन्त सुखकर स्पर्श की आज्ञा से पाण्डव अपने अनुकूल जनो के साथ दक्षिण सहित दिशाओ को सुगन्धित करने वाली वायु बहने लगी दिशा की ओर गए और वहाँ उन्होने मथुरा नगरी और आकाश को व्याप्त करती हुई रनो की धारा बरसने बसायी"।
लगी। इसी प्रकार राजा श्रेयास तीनो लोको को आश्चर्य प्रथम दानतीर्थ का प्रवर्तन पद्मचरित में हस्तिनपूर मे डालने वाले देवकृत सम्मान को प्राप्त हआ। सम्राट अथवा हस्तिनापुर में प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋपभदेव भरत ने भी बहुत भारी प्रीति के साथ उनकी पूजा की। द्वारा आहार ग्रहण करने का वर्णन आया है, तदनुसार अनन्तर इन्द्रियजयी भगवान् ऋषभदेव मुनियों का व्रत शोभा मे मेरु के समान भगवान् ऋपभदेव किसी दिन कैसा है ? उन्हें किस प्रकार आहार दिया जाता है, इसकी विहार करते-करते मध्याह्न के समय हस्तिनापुर नगर मे प्रवृत्ति चलाकर फिर से शुभध्यान मे लीन हो गए। प्रविष्ट हुए"। मध्याह्न के सूर्य के समान दैदीप्यमान उन अनन्तर शुक्लध्यान के प्रभाव से मोह का क्षय होने पर पुरुषोत्तम के दर्शन कर हस्तिनापुर के समस्त स्त्री-पुरुष उन्हे लोक और अलोक को प्रकाशित करने वाला केवलज्ञान बड़े आश्चर्य से मोह को प्राप्त हो गए अर्थात् किसी को उत्पन्न हो गया। यह ध्यान नहीं रहा कि आहार की वेला है, इसलिए ७०० मुनियों की उपसर्ग निवृत्ति का क्षेत्र हस्तिना. भगवान् को आहार देना चाहिए। वहाँ के लोग अन्य पुर मे अकम्पनाचार्य आदि सात सौ मुनियों के उपसर्ग का वाहन ला-लाकर उन्हें समर्पित करने लगे । विनीत वेष को निवारण हुआ। इसकी कथा इस प्रकार हैधारण करने वाले कितने ही लोग पूर्ण चन्द्रमा के समान किसी समय उज्जयिनी में श्रीधर्मा राजा रहता था। मुखपाली तथा कमलों के समान नेत्रों से सुशोभित सुन्दर- उसके बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रसाद ये चार मन्त्री