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३२, वर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
मेरी दृष्टि से लोक-रचना और तत्त्वो के तत्त्व पर और गुरु, गुरु न रहे वे कर्मचारी श्रेणी में जा पड़े। यह शोध किए बिना मात्र आगम को मिथ्या बताने से सब भौतिकता का प्रभाव है जो धन के लोभ और धन के कुछ हाथ नही आएगा। अपितु, रहा सहा जो है वह भी प्रभुत्व में क्रमश: पनपता रहा । पढाने वाले विद्वान् धर्मखो जाएगा । कृपया लोक रचना की पुष्ट-शोध कराइए ज्ञान जैसे धन को पैसे लेकर बेचने लगे और भौतिकऔर सोचिए।
विभूति वाले उसको खरीदने के आदी बन गए। कैसी ४. ज्ञान-प्रागार और शोध-संस्थान ? बिडम्बना चालू हुई ? जिनवाणी के सेवक कर्मचारी और जैन-धर्म और दर्शन स्व-पर स्वरूप को दिखाने वाले
तत्सबधी कुछ न करने वाले स्वामी होकर रह गए—जैसा जीवित शोध-सस्थान थे। इनके माध्यम से भेद-विज्ञान का
कि सरकारी और लौकिक चलन है। बस यही से पतन पाठ पढ़ाया जाता था और पढ़ाने वाले शिक्षक, आचार्य,
का श्रीगणेश हुआ-दृष्टि मे बदलाव आया-धर्म नियमो
मे राजनीति प्रविष्ट हुई जिसे कि नही होना चाहिए था। उपाध्याय और गुरु कहलाते थे। शोध-सस्थानो की यह परम्परा तीर्थकर ऋषभदेव के समय से महावीर पर्यन्त
इरा भौतिकता का प्रभाव यहाँ तक बढा कि बड़े-बड़े अविछिन्न रूप में चली आती रही-कभी कम और कभी भवन वनते रहे, उनके भौतिक रजिस्ट्रेशन होते रहे, अधिक । तत्त्वार्थसूत्र मे बतलाए गए साधुओ के भेदो में सरकारी मान्यताएँ मिलती रही। उनमे शोध-कार्य चले, गिनाए गए तपस्वी, शक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, साधु, मनोज्ञ
मनोज
आ
और कहने को कुछ सफल भी हुए। पर वास्तव में कुछ और अणुवती श्रावक सभी इन माध्यमो से ऊँची-ऊँची हाथ न लगा। जो भौतिक शोधे हुई वे ग्रन्थो, मन्दिरों पदवियो को पाते और स्व-पर कल्याण करते-कराते रहे। और मठो नक ही सीमित रह गई-रव-पर भेद विज्ञान से पर, तीर्थकर महावीर के बाद गौतम, जम्ब, मधर्मा नपा उनका कोई प्रयोजन नहीं। मानव आज भी पर मे लीनअन्य मान्य आचार्यों और थावको के उपरान्त धीरे-धीरे भव-विज्ञान शून्य है- उसे व्यावहारिक बातचीत का ढंग इस परम्परा मे धूमिलता आती गई। फिर भी इनका भी नहीं आया है। देव-शास्त्र-गुरु की पूजा तो दूर : वह चलन विद्यालयो, मन्दिरो और पुस्तकालयो के रूप में आचार-विचार से भी भ्रष्ट हो चला है। जारी रहा- इनके माध्यम से स्व-गर भेद विज्ञान का पाठ यह सब क्यो हुआ? इममे कारण, पास-प्रथा को चालू रहा। गुरु गोपालदाम वरैया, पूज्यवर्णी गणेशप्रसाद कायम रखने की मनोवृत्ति है या धर्म-ज्ञान की विक्री जी आदि जैसे उद्भट विद्वान भी तैयार होते रहे। की प्रवृत्ति या कुछ न करके भी अधिकारित्च जताने की
आज स्थिति यहाँ तक पहुन गई है कि विद्यालय, भावगा - Tण है । जरा सोचिए और पतन के कारणो को विद्यालय न रहे। वे ईट-पत्थरो के आगार मात्र रह गए रोकिए ।
-सम्पादक (आवरण पृष्ठ ३ का शेषाश) दूसरी प्रतिमा मे केवल शासन देवी अम्बिका का सिर प्राप्त हुआ है, जो पूर्णत. घिस गया है। जिन प्रतिमा का पार्श्व भाग :
__ संग्रहालय मे जिन प्रतिमा के पार्श्व भाग से सबधित तीन कलाकृतिया सग्रहीत है । प्रथम भाग मे जैन प्रतिमा का दायाँ पार्श्व भाग है । जिस पर अंकित जिन प्रतिमा भिन्न प्राय. है । दाई ओर गज व्याल बाईं ओर मालाधारी यक्ष एव नृत्यरत यक्षी का शिल्पांकन है।
दुसरी प्रतिमा जैन मूर्ति का बाँया भाग है। जिसका दायाँ पार्श्व भग्न है। दोनों ओर अभिषेक कलश सहित गजराज, जिन प्रतिमा यक्ष, गुन्धर्व एव मालाधारी छत्रावली आदि का आलेखन है।
तीसरी प्रतिमा जिन प्रतिमा का बायां भाग है। जिसमे छत्रावली, वादक, नर्तक, यक्ष, गन्धर्व तथा कलश लिए हुए हाथियों का शिल्पांकन है।।
केन्द्रीय पुरातत्व संग्रहालय गूजरी महल, ग्वालियर (म०प्र०) .