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३० बर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
होती-इनके आश्रित व्यक्ति अपने आचरण से सहज ही भी दे सकता है, जैसी कि मनोवत्ति आज राजनैतिक मानवता के प्रतीक बन जाते हैं ।
पार्टियों में स्पष्ट ही चल रही है, आदि : हमें आश्चर्य होता है जब कोई व्यक्ति स्वभावतः पहिले बुजुर्गों ने अनेकों संस्थाएँ खड़ी की उनके रजिस्ट्रेशन करने वाले धर्म या धर्म-सस्थान के लौकिक भौतिक रजिस्ट्रेशन भी कराए। वे रजिस्ट्रेशन क्या काम रजिस्ट्रेशन की चर्चा चलाता है । ऐसे व्यक्ति के आए लोग कानूनो मे उलझ गए और आज स्थिति यह प्रति मन में विविध शकाएँ होती है-कि इसके है कि न वे लोग रहे और ना वे संस्थाएँ ही रही । जो रही मन मे अवश्य कोई अनैतिकता का भूत सवार है। या तो भी उनमे कई तो व्यक्तियो के कमाने खाने मे ही सीमित यह सस्था के प्रति दूसरे के द्वारा भय-उत्पादन से शकित हो गई। सो यह तो समय का फेर है। जब धर्मी के मन से हैं या स्वयं ही भयावह है, जो लौकिक न्यायालय के सहारे धर्म निकल जाता है तब रजिस्ट्रेशन आदि सभी यूं ही घरे की ताक में है।
रह जाते है । अत धर्म और धार्मिक भावना की कद्र करना उस दिन एक व्यक्ति मिले। बोले-हमे अपने धार्मिक ही सबसे बडा रजिस्ट्रेशन है-इन वाह्य रजिस्ट्रेशनों मे न्यास का रजिस्ट्रेशन कराना है। मैं अवाक रह गया थोडी कुछ नही रखा । वम वे चुप हो गए। देर बाद मैंने ही उनसे कहा-धर्म और धर्म-सस्थानो का वास्तविकता क्या है ? धर्म-सस्थानो की रक्षा में धर्मआत्मा से तादात्म्य संबंध है। धर्म तो व्यक्ति का स्वय मे भाव मुख्य कारण है या वाह्य-लौकिक रजिस्ट्रेशन ? रजिस्ट्रेशन है। धर्म मानवता की रजिस्ट्री करता है । मानव जरा सोचिए । धर्म से तनिक भी च्युत हुआ कि वह पाप कर्म से जकड लिया गया इसमे किसी दूसरे न्यायालय की आवश्यकता ३. ऊध्र्व व मध्यलोक तथ्य है ! ही नहीं पड़ती। जब किसी व्यक्ति के मन में अनैतिकता का जैनी' जिनदेव का भक्त होता है। वह 'जिन' की वाणी प्रवेश होता है तब धर्म और धर्म सस्थान दोनो ही स्वतः का ज्ञाता और उपदेश का पालक भी होता है। देव-शास्त्रविघटित हो जाते है-वे अधर्म का रूप ले लेते है, उनकी गरु तीनों ही रत्न उसके अपने होते है और वह उनकी रक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता। लोक में आज हम जिन्हें सभाल करता है। जो लोग कुदेवों की उपासना करते हों, धार्मिक संस्थान मानने लगे हैं वे सर्वथा ईट चूने और
जिन वाणी के रहस्य को न जानते हों और गुरुओं में सीमेन्ट के ढेर और चांदी सोने के टुकड़े मात्र है-उनकी
नि स्पृहता के दर्शन न करते हो-वे इन रत्नों की रक्षा रक्षा करके हम धर्म या धार्मिक न्यास की रक्षा नही कर
करने मे सर्वथा असमर्थ ही होंगे। सकते जब कि हम धर्म और मानवता-शून्य हों।
आज स्थिति ये है कि अनादि परम्परागत धर्म और वे बोले-आप तो पुण्य-याप की बात पर आ गए । मैं त्रिलोक-महल, जिन्हें गताब्दियो तक तीर्थकर और तो बाह्य-सम्पत्ति के संरक्षण की बात कर रहा हूँ कि
परम्परागत आचार्य सभालते रहे-सरक्षण देते रहे, अब भविष्य में वह सुरक्षित रहे ।
खण्डहर होने की बाट जोहने लगे है। और हम ऐसे निर्मम ___ मैंने कहा-यदि किसी को झगडा करना ही हो- है जो इनकी ओर कनखियो तक से निहारने को तैयार और यदि उसकी नीयत खराब हो तो झगड़ा अवश्य नही-सर्वथा मुख मोड़े बैठे है और कहीं पर प्रकाशित करेगा। वह रजिस्ट्रेशन होने पर भी अधिकार कर लेगा निम्न पंक्तियों को भी सुख से पढ़ रहे हैऔर आप बचा न सकेंगे। वहां तो कानून मे कानून है "ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक संबंधी वर्णन तो बाद के और साथ में 'जिसकी लाठी उसकी भैस' कहावत भी है। आचार्यों ने जो छमस्थ थे उस समय के इस विषय के वह अपने पक्ष में बहुमत सिद्ध करने के लिए अपने सदस्यो विद्वानो की मान्यतानुसार अपने शास्त्रों में किए हैं।" का बाहुल्य भी कर सकता है, उन्हे पदो आदि के प्रलोभन "छद्यस्थ आचार्यों द्वारा लिखी बात आधुनिक वैज्ञानिक