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प्रज्ञानता
चाहे दूसरे कोटि भी उपाय करो पर बिना अज्ञानता को छोडे राग, द्वेष, मोह नहीं मिटेगा । इसीलिए यह कीमती बात है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित नही होता । सम्यक्चारित्र अर्थात् कषाय का छुटना । सम्यक्दर्शन क्या है-अपने को अपने रूप देखना । बंध क्या है ? संसार क्या है? भीतर की यह अज्ञानता ही सब कुछ है। हमने क्या किया ? इस अज्ञानता को तो भीतर रखी और जब घर में रहे तो वह स्त्री पुषादि के साथ जुड़ गई तब यह भासित हुआ कि ये मेरे है, यही मेरे लिए सब कुछ है । फिर उपदेश मिला कि मन्दिर जाया करो। जब मन्दिर आए तो अज्ञानता तो घर छोड़कर आए नहीं वह साथ-साथ मन्दिर आ गई तब यहां वह जुड़ी भगवान के साथ और यह दिखाई दिया कि यही तरण-तारण है । यही सुख देने वाला है, यही सब कुछ है। शास्त्र पढ़ने बैठे तो अज्ञानता उसमें जुड़ गई, तब उसके शब्दों में अटक गए, या खूब शास्त्र पढ़कर पंडित बन गए । अहंकार पैदा हो गया, या सोचा चलो कुछ तो पुण्य का बंध होगा । वह अज्ञानता अब पुण्य बंध के साथ जुड़ गई और पुण्य बंध पर दृष्टि रहने से निज तत्व की प्राप्ति मुश्किल हो गई इस पुण्य को पाप समझकर चलो तब अंतर धक्का लगेगा और 'स्व' पर दृष्टि जाएगी। वास्तव में ये पुण्य सार्थक नहीं है, जब इसका उदय आता है तो व्यापार में और अधिक फंसा देता है, रोटी खाने में हैरान, पूजा करने मे ईरान, शास्त्र पढ़ने में हैरान तो यह पुष्प का नहीं पान का ही उदय है और आगे चले जब मुनि बनते हैं और वह अज्ञानता साथ रह जाती है तो पहले उसके कारण लड़के बच्चों में अपनापन था अब सेठों में, भक्तों में, पिच्छी कमण्डलु में अपनापन या गया। अज्ञान दो अब भी अपना काम किए बिना नहीं रहेगा। पहले गृहस्थ भेष में अपनापन था अब मुनि भेष में आ गया। जंगल में गए तो वहां स्थान में अपनापन आ गया कि
ले० बाबूलाल जैन (बा)
अमुक जगह बड़ी अच्छी है, बड़े काम की है। वैष्णवों की कथा है कि बाबाजी ने जंगल में, अनाज बोया, गाय बांधी, लगान न देने पर राजा द्वारा सजा मिली जब उसने विचार किया कि इस सब झमेले की जड़ क्या है, घर-बार सब छोड़ने पर भी ये अड़ंगा क्या हुआ तब बहुत सोचते-सोचते उसकी समझ में आया- अरे सब कुछ तो छोड़ दिया पर मूल बात वह अपनापन तो छोड़ा ही नहीं जो सबसे पहले छोड़ना था वहां पर तो छोड़ आया पर यहां खेत में अपनापन मान लिया तो बाहर का क्षेत्र बेशक बदल गया पर भीतर में अपना मानने वाला जो बैठा है वह तो नहीं का बहीं है, उसे तो घर से यहां भी साथ ही ले आया हूं । इसीलिए कह रहे है कि इस अज्ञानता को साथ लेकर तू चाहे जहां चला जा, यह साथ जाएगी तो वहां जिस किसी के भी साथ में जुड़ेगी वही तुझे उल्टा दिखाई देने लगेगा । तब छोड़ना क्या है ? उस बाहरी वस्तु को नहीं, पदार्थ को नहीं, वह तो पर है ही उसे क्या छोड़ेगा । छोड़ना तो उस अज्ञानता को है जो तेरी अपनी नहीं है जिसे तू ने अपना रखा है और उस अज्ञानता को छोड़ने के बाद वही घर रहेगा वही स्त्री-पुत्रादि रहेंगे पर पहले तुझे वे ही सब कुछ दिखाई देते थे अब लगेगा अरे! ये तो घर है मैं इनमें कहां फंसा हुआ हूं। चीज तो वहीं है पर अन्दर की अज्ञानता छोड़ने से वही दूसरे रूप मे दिखाई देने लगती है । दूसरे रूप से मतलब सच्चे रूप में, पहले उसी वस्तु को गलत रूप मानता था । मन्दिर में आता अज्ञानता को छोड़कर तो अब दिखाई देने लगा कि जिनेन्द्र के माध्यम से मुझे अपनी चेतन आत्मा के दर्शन करने हैं। बार-बार जिनेन्द्र की तरफ देखता है तो एक धिक्कार फिर अन्दर से आती है कि वे तो अपने आप में लीन हैं और तू बाहर में घूम रहा है तू उनकी तरह भीतर में लीन क्यों नहीं हो जाता ? उस धिक्कारता के आने पर उसके अन्दर पुरुपार्थं जागृत होता है । धक्का लगता है तो नींद टूटती है ।
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