Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 105
________________ जरा सोधिए ! जैसे खोजो से गलत हो जाने से जैन धर्म का कुछ नही इतना ही क्यो ? जैन भूगोल और ऊर्ध्वलोक की बिगड़ता।" "जब हमारे विद्वान् मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक मान्यता के अभाव में तीर्यकरो के जीवन चरित्र के संबंध संबधी अपनी शास्त्रीय मान्यताओ को आधुनिक वैज्ञानिक मे भी विवाद खडा हो जायगा। यत: जब स्वर्ग नही, तो खोजों के मुकाबले मे प्रमाणित करने में असमर्थ है, तीर्थकर के जीव का वहाँ होना और वहाँ से चयकर तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे चौथे अध्याय व उनकी टीकाओ का माता के गर्भ में आने का प्रसग ही नही और गर्भ मे न पढ़ाना बन्द कर दिया गया है।" आने से पैदा भी न हए। तथा देवगति के अभाव मे हमारे यहाँ देव-शास्त्र-गुरु को रत्न-सज्ञा दी गई है। भगवान पार्श्वनाथ पर कमठजीव (देवयोनि) द्वारा और इस समय इनमे से वीतराग देव का सर्वथा अभाव है और महावीर पर 'सगम' देव द्वारा उपसर्ग भी नही। ऊर्ध्वलोक गुरु भी अगुलियो पर गिनने लायक कुछ ही होगे- के अभाव मे सिद्धशिला (मुक्त जीवों का स्थान) भी सिद्ध अधिकाश मे तो लोगो की अश्रद्धा जैसी ही हो चली है। न हो सकेगा.. मुक्तिी समाप्त हो जायगी। और भी अब तो केवल शास्त्र ही स्थितिकरण के साधन है, जो उक्त बहुत से विरोध खड़े होगे। प्रकाशनों जैसे साधनो से मिथ्या होने लगेगे। और लोग हमारी दृष्टि में जैन आगम सर्वथा तथ्य है । अमेरिकी जो अश्रद्धा के कगार पर खडे है-गड्ढे में गिर पड़ेगे और वैज्ञानिको की मान्यता हो चली है कि चन्द्र अनेक होने यह सबसे बडा बिगाड होगा। चाहिए-वे खोज में लगे है . खोज होने दीजिए । वास्तव यदि भूगोल सबधी जैन-रचना को मिथ्या माना जायगा में खोज कभी पूरी नहीं हो पाती क्योकि वस्तु अनन्त धर्म तो 'जैन' का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा-न नन्दीश्वर वाली है और अनन्त को अनन्त ज्ञान ही जान पाता है । द्वीप होगे न उनमे स्थित प्रतिविम्बो के पूजक ही होगे। समाज का लाखो रुपया जो दिखावट और यश-अर्जन मे अथवा किन्ही सीमित हाथो मे अधिकार के लिए, इधर(१) जैन भूगोल के मिथ्या मानने पर विदेह क्षेत्र का उधर घूमता दिखाई देता है उसे वास्तविक 'ज्ञान-ज्योति' अभाव होगा जिससे वहाँ के विद्यमान बीम तीर्थकर असिद्ध (ज्ञानप्राप्ति-शोध) मे लगाये जाने की आवश्यकता है-- होंगे । आप बीस तीर्थकर-पूजा न करेगे? बुझने वाली, अस्थायी किसी 'ज्ञान-ज्योति' में लगाने की (२) सुमेरु पर्वत का अभाव होगा, तब तीर्थकरो का नही। जन्म कल्याणक अभिषेकोत्सव असिद्ध होगा। ऊर्व और मध्य लोक की रचना के बारे मे लोग (३) क्षीर-समुद्र का अभाव होने से जल-जो विद्वानो से पूछते है। आखिर, जैन-विद्वान तो उतना ही अभिषेक के लिए आया होगा-वह भी न होगा। बता सकेगे-जितना वे जानते हो। क्या समाज ने कभी (४) इन्द्रादि देवगण (ऊर्ध्वलोक) के अभाव मे अभिषेक विद्वानो को साइन्स के एक्सपर्ट बनाने के साधन जुटाए किसने किया होगा? है ? कोई ऐसी वैज्ञानिक रिसर्च शोधशाला खोली है जो (५) समवसरण देव रचते है, देवो के अभाव मे वह जैन भूगोल पर शोध करे ! क्षमा करे, समाज की दृष्टि रचा न गया होगा तब तीर्थकरों की दिव्य ध्वनि कहाँ से तो आज भी मिट्टी-पाषाण, भाषा-लिपि, और स्वत: मे हुई होगी? सिद्ध- स्पष्ट साहित्य ग्रन्थो को कुरेदने-उनमे इतस्ततः (६) देवरचितअर्धमागधी भाषा के अभाव मे दिव्य- विभिन्न जोड़-तोड़ बिठाने वाले शोधकर्ताओं और ध्वनि का इस भाषा मे होना भी सिद्ध न होगा। तथाविध शोध-प्रबन्धो को तैयार करने कराने की बनी हुई (७) इन्द्र की सिद्धि न होने से गणधर की उपलब्धि है। कोई उनमें छन्द-अलकार की खोज में लीन है तो कोई भी सिद्ध न होगी और गणधर के अभाव में दिव्य-ध्वनि व्यक्तित्व और कृतित्व म P.hd. चाहता है और कोई भी नही होगी। ऐसे मे तीर्थंकरो का कोई भी उपदेश सिद्ध पुरुषो की लम्बाई-चौड़ाई ही ढूढता है । आगम के मौलिक न हो सकेगा। तथ्यों को उजागर करने-कराने वाले तो विरले ही है।

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