Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 66
________________ २६, पर्व ३५, कि०२ ह . रिक्त अन्य कोई 'चातुर्याम' नहीं थे।" बुद्ध और महावीर रूप में घड़ी, ऐसा अर्थ न कर लें, नहीं तो प्राकत भी के साक्षात्कार का विषय शोधापेक्षी है। संस्कृत हो जाएगी) प्राकृतिक है, सहज है, वाणी के ___ 'पर्युषण और दशलक्षग धर्म' लेख रोचक भी है स्वभाव में स्थित है, उसके रूप-रूपान्तर तो होंगे ही। और सूचक भी। पर्यषण दिगंबर श्रावकों में दस दिन पंडित पपचन्द्रजी की बात तर्क-संगत है कि प्राकृत का रूप और श्वेताम्बरों में आठ दिन मनाया जाता है । इसीलिए चाहे शौरसनी हो, चाहे महाराष्ट्री, चाहे अर्धमागधी के एक सम्प्रदाय इसे दशलक्षण धर्म कहता है, दूसरा अष्टा- आस-पास का, शब्द रूप तो भिन्न-भिन्न मिलेंगे । इनका न्द्रिका (अठाई)। उत्कृष्ट पर्युषण दोनों में चार मास का संशोधन क्या ? बात इतनी भर है। लेकिन लेखरूप में माना जाता है अतः चातुर्मास दोनों सम्प्रदायों में प्रचलित यही बात अच्छी खासी गभीर बन गई है। गणित जैसी है। पर्यषण दिगम्बरों में भाद्र शुक्ला पंचमी से प्रारम्भ तालिकाएं, व्याकरण के नियमः पिशल का साक्ष्य, होता है. श्वेताम्बरों में पंचमी को पूर्ण होता है । लेखक पुग्गल और पोंग्गल तादात्म्य, पाहुड़ ग्रन्थों में उपलब्ध ने इसे शोध का विषय-बताया है । हां, है किन्तु अव पाठान्तर, 'द' का लोप और 'य' का आगम-सब कुछ उन्हीं से अपेक्षा है कि इस शोध कार्य मे वह जुट जाए । चमत्कारी है। व्यापक अध्ययन का द्योतक! श्रुत-सागर और समाजशास्त्र के महोदधि में गोता 'आत्मा का असंख्यात प्रदेशित्व'-गंभीर विषय है। लगायेंगे तो रत्न निकालकर लाएगे। जब पर्युषण पर्व सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचन्द्र जी ने इसे एक वाक्य में पर, महानिशीथ के अनुसार पंचमी, अष्टमी, और चतुर्दशी ही सरल बना दिया । "यह कोई बिवाद ग्रस्त बिषय नही को उपवास का विधान है तो श्वेताम्बर आम्नाय में है.. यहां अप्रदेशी का मतलब 'एक भी प्रदेश न होना' नहीं प्रचलित अष्टान्हिका की सीमा में एक पर्व छूट जाता है। है, किन्तु अखण्ड अनुभव से है वही शुद्ध नय का विषय क्यों ? 'समयसार' की पन्द्रहवीं गाथा के तीसरे चरण पंडित पप्रचन्द्र शास्त्री ज्ञान में जितने गुरु-गम्भीर 'अपदेश संत मज्झं' के ये जो दो रूप मिलते है, उनमे हैं, व्यवहार में उतने ही सरल और विनयशील । उनकी औरत को लेकर विद्वानों में विवाद है कि कौन पस्तक का अन्तिम वाक्य है.से शब्द-पाठ ठीक है। 'अपदेश' वह जो पदार्थ को दर्शाए 'जवि बुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्यं' -अर्थात शब्द, यही है द्रव्यश्रुत । सुत्त-सूत्र = सूत्रम् परिच्छित्तिरूपम् भावश्रुतं । अर्थात आत्मा और जिन शासन के बीच (मज्नं) अभेदभाव की प्रतीति । विकल्प में अर्थ है -अन्य मनीषियों को दृष्टि में'अपदेस' अर्थात अप्रदेशी, 'संत' अर्थात शांत, मझ अर्थात मेरा । इतना ही नही-संभावना है कि 'संत' शब्द का श्री यशपाल जैन, नई दिल्ली। मूलरूप 'सत्त' या 'मत्त रहा हो। सत्त-सत्व । सुत्त जिन शासन के....'प्रसंग' में जिन तात्विक प्रश्नों शब्द भी विचारणीय है स्वत्व । मत्त की संगति बैठानी को उठाया है वे बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। अपने गहन अध्ययन हो तो -अपदेस+अत्त+मज्झं । अत्त--आत्म । सब के आधार पर आपने जो समाधान प्रस्तुत किए है वे प्रकार का द्रविड़ प्राणायाम संभव है । कुन्दकुन्द ने जो सांगोपांग विचार के लिए पर्याप्त सामग्री प्रदान करते है। कहा है अन्त में सब आयेंगे उसी भाव पर । फिर अनेकान्त सप्रमाण और तर्कसंगत विवेचन निश्चय ही उन विसंगत वादियों को क्या चिता? स्वरों के बीच सौमनस्य स्थापित करने में सहायक हो 'आचार्य कुन्दकुन्द की प्राकृत' लेख में यही उचित सकता है, जो जैनत्व की एकता को खंडित करते है। रहा कि कुन्दकुन्द के इतिहास को चक्रव्यूह में ही सुर- पुस्तक की रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार क्षित रखा। रही बात प्राकृत की, सो जो प्रकृत है (विशेष कीजिए।

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