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८, वर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
कारण सबसे बड़ा योग होता है अन ता का मबार प्रति जीविकोपार्जन की पद्धति का औचित्य सिद्ध करना दिन करने के कायण सबमे बडा योग होता है अत: तप का चाहता हैसवार प्रतिदिन करने के कारण राजा राजाप कहलाता है- शहजे किल जे विणिन्दिए ण हु दे कम्म विधज्ज गी अए। रक्षायोगादयमपि तप प्रत्यहसञ्चिनोति ।
पशुमालणकम्मदालुणे अणु मामिदु एर शोत्तिए ।। अस्यापि द्या स्पृशति वशिनश्चारणद्वन्द्वगीत
-अभि० शाकु० ६१ पुण्य शब्दो मुनिरिति मुहु केवल राजपूर्व ।
____ अर्थात् निन्दित भी जो काम वस्तुत. दशपरम्परागत
है, उसको नही छोडना चाहिए । (यज्ञ मे पशुओं को मारने --अभि० शाकु० २।१४ । अहिंसक भावना से ओत-प्रोत स्नेह का पशुपक्षियो
रूपी कार्य मे कठोरवृत्ति वाले भी वेदपाठी ब्राह्मण दयाभाव
मे मृदु ही कहे जाते है। और वृक्षो पर प्रभाव पड़ता है। वे भी अपने स्नेही के
ऐसा लगता है, कालिदाम के समय यज्ञो मे जो पणु वियोग मे कातर हो जाते है। शकुन्तला के वियोग मे
हिसा होती थी, उसे जन सामान्य अच्छा नही समझता पशुपक्षियों की ऐसी ही दशा का चित्रण कालिदास ने
था । छठे अङ्क मे ही जब राजा मातिल का स्वागत करता किया है
है तो विदूपक कहता है-- 'अह जेण इहिपसुमार मारिदो उग्गालअदभकवला मिआ परिच्चत्तणच्चणा मोरा।
सो इमिणा माअदेण अहिणन्दीअदि' अर्थात् जिसने मुझे ओसरिअपण्डपत्ता मुअन्ति अस्सू विअ लदाओ॥
यज्ञिय पशु की मार मारा है, उसका यह स्वागत के द्वारा -अभि० शाकु० १२
अभिनन्दन कर रहे है। अर्थात् शकुन्तला के वियोग के कारण हरिणिओं ने
जहाँ अहिंसा और प्रेम होता है, वहाँ विश्वास की कुशी के ग्रास उगल दिए, मोरो ने नाचना छोड दिया और
भावना प्रबल होती है। छठे अङ्क में चित्रकारी के नैपुण्य लताये मानो आसू बहा रही है।
की पराकाष्ठा को प्राप्त एक कृति बनाना चाहता हैशकुन्तला के द्वारा पुत्र के रूप में पाला गया मृग कार्यासकालीन हममिथुना स्रोतोवहा मालिनी । इतना संवेदनशील है कि शकुन्तला की विदाई के समय पादास्तामभितो निषण्णहरिणा गौरीगुरो. पावनाः ।। वह उसका मार्ग ही नही छोडता है
शाखालम्बितवल्क नस्य च तरोनिमातुभिच्छाम्यध । यस्य त्वया व्रणविरोपणमिगुदीना ।
थङ्ग कृष्णमृगस्य वामनयन कण्ड्मामा मृगीम् ।।--६।१७ तैल न्यषिच्यत् मुखे कुशसूचिविद्धे ॥
जिसके रेतीले किनारे पर हपो के जोड़े बैठे हुए हैं, श्यामाकमुष्टिपरिवद्धित को जहाति। ऐसी मालिनी नदी बनानी है, उसके दोनो ओर जिन पर सोऽय न पुत्रकृतक. पदवी मृगस्ते ॥
हिरण बैठे हुए है ऐसे हिमालय की पवित्र पहाड़ियाँ बनानी
--अभि० शाकु० ४।१४ है जिनकी शाखाओ पर वल्कल लटके हुए है, ऐसे वृक्ष के अर्थात् जिसके कुशों के अग्रभाग से बिंधे हुए मुख मे नीचे कृष्ण मृग के सीग पर अपनी बाई आँख खुजाती हुई तुम्हारे द्वारा धावो को भर ने वाला इगुदी का तेल लगाया मगी को बनाना चाहता है। गया था, वही यह सावॉकी मुट्ठियो (ग्रासो) को खिला हसमिथुन प्रेम का प्रतीक है। प्रेम की अवतारणा कर बड़ा किया गया और तुम्हारे द्वारा पुत्र के समान कृष्ण मृग और मृगी मे हुई है। मृगी को मृग पर इतना पाला गया मग तुम्हारे मार्ग को नहीं छोड़ रहा है। अगाध विश्वास और प्रेम है कि वह उस के सीग पर
जीवन मे अहिंसा की भावना सर्वोपरि है। जिसके अपनी बाई आंख खुजला रही है। जीवन में अहिंसक आचरण नही है। उसका लोकनिन्दित इस प्रकार सारी प्राकृतिक सृष्टि के प्रति संवेदनशील जीविका वाले व्यक्ति भी परिहास करते है। शाकुन्तल के महाकवि कालिदास ने अपने सुकुमार भावों की व्यजना में छठे अंक मे जब श्याल मत्स्योपजीवी की हँसी उड़ाता है, अहिंसा को पर्याप्त स्थान दिया है। तब वह अनुकम्पा मदु श्रोत्रिय का उदाहरण देकर अपने
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