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जैन और यूनानी परमाणुवाद : एक तुलनात्मक विवेचन
- डा. लालचन्द जैन
जेन-दर्शन के अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद, कर्भवाद, सिद्धान्तो की तरह परमाणुवाद अत्यधिक प्राचीन है। जैन अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, अध्यात्मवाद और परमाणुवाद वाङ्मय मे परमाणु के स्वरूप भेद आदि का सूक्ष्म विवेचन मूलभूत सिद्धान्त है। इनमे से कतिपय सिद्धान्तो का उपलब्ध होता है। इस प्रकार विवेचन अन्यत्र अर्थात् तुलनात्मक विवेचन किया गया है। परमाणुवाद भी इसको भारतीय और पाश्चात्य वांगमय में नहीं हो सका है। अपेक्षा रखता है। परमाणुवाद जैन-दर्शन की भारतीय जैन-दर्शन में परमाण का स्वरूप-परिभाषाएँ: दर्शन को एक महत्वपूर्ण और अनुपम देन है। विश्व के परमाण शब्द 'परम' 'अण' के मेल से बना है। सामने सर्वप्रथम भारतीय चिन्तको ने यह सिद्धान्त प्रस्तुत
परमाणु का अर्थ हुआ सबसे उत्कृष्ट सूक्ष्मतम अणु । द्रव्यों किया था। अब प्रश्न यह उठता है कि भारत में सर्वप्रथम में जिससे छोटा दूसरा द्रव्य नहीं होता है वह अणु कहलाता किस निकाय के मनीषियों ने परमाणु-सिद्धान्त प्रस्तुत है अत अणु का अर्थ सूक्ष्म है। अणुओ में जो अत्यन्त सूक्ष्म किया? जैकोबी ने इस पर गहराई से विचार करके इसका
होता है वह परमाणु कहलाता है। बारहवे अंग दृष्टिवाद श्रेय जैनमनीषियों को दिया है। इसके बाद वैशेषिक
का दोहन करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में दार्शनिक कणाद इस परम्परा मे आते है।'
परमाणु का सर्वप्रथम विवेचन किया है जिसका अनुकरण पाश्चात्य देशो मे जो दार्शनिक विचारधारा उपलब्ध अन्य आचार्यों ने किया है । है उसका बीजारोपण सर्वप्रथम यूनान (ग्रीस) मे ईसा पूर्व प्राचार्य कुन्दकुन्द : छठी शताब्दी में हुआ था। ग्रीक-दर्शन के प्रारम्भिक आचार्य कुन्दकुन्द ने परमाणु की निम्नाकित परिभाषा दार्शनिको को वैज्ञानिक कहना अधिक उपयुक्त समझा गया दी है। है। इनमे एम्पेडोक्लीज के समकालीन ईसा से पूर्व पाचवी
(क) परमाणु पुद्गल द्रव्य कहलाता है।' शताब्दी मे होने वाले 'ल्यूसीयस' और डिमाड्रिप्स का सिद्धान्त परमाणूवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इनके इस
(ख) पुद्गल द्रव्य का वह सबसे छोटा भाग जिसको सिद्धान्त की जैनो के परमाणुवाद के साथ तुलना प्रस्तुत
पुन विभाजित नही किया जा सकता है परमाणु की जायेगी ताकि अनेक प्रकार की प्रातियों और आशकाओ
___कहलाता है।' का निराकरण हो सके।
(ग) स्कन्धों (छह प्रकार के स्कन्धों) के अंतिम भेद भगवान ऋषभदेव जैन धर्म-दर्शन के प्रवर्तक सिद्ध हो (अर्थात् अति सूक्ष्म-सूक्ष्म को जो शाश्वत्, शब्दहीन, एक चुके है। जैन-धर्म मे इन्हे तीर्थकर कहा जाता है। इस अविभागी और मूर्तिक परमाणु कहलाता है। प्रकार के तीर्थकर जैन-धर्म में चौबीस हुए हैं। भगवान (घ) जो आदेशमात्र से (गुणगुणी के संज्ञादि भेदों से) महावीर अंतिम तीर्थकर थे। ऋषभदेव की परम्परा से मूर्तिक है, पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं प्राप्त जैन धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों को ई०पू० ५४० मे का कारण है, परिणमन स्वभाव वाला है, स्वयं अशब्द रूप भगवान महावीर ने संशोधित-परिमार्जित करके नये रूप है, नित्य है, न अनवकाशी है, न सावकाशी है, एक प्रदेशी में प्रस्तुत किया था। तीर्थंकरों के उपदेश जिस पुस्तक में है, स्कन्धों का कर्ता है, काल संख्या का भेद करने वाला निबद्ध किये गये वे आगम कहलाते है। आगमों में अन्य है, जिसमें एक रूप, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श होते