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नियमसार को ५३वीं गाथा की व्याख्या और अर्थ में भूल
डॉ० दरबारोलाल कोठिया, न्यायाचार्य, वाराणसी आचार्य कुन्दकुन्द का नियमसार जैन परम्परा मे उसी सशोधन नही किया। आश्चर्य यह है कि सोनगढ़ से प्रकाशित प्रकार विश्रुत और प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ है जिस प्रकार नियमसार व उसकी सस्कृत-व्याख्या का हिन्दी अनुवाद भी उनका समयसार है। दोनो ग्रन्थो का पठन-पाठन और अनुवादक श्री मगनलाल जैन ने वैसा ही भूलभरा किया है । स्वाध्याय सर्वाधिक है। ये दो तो ग्रन्थ मूलतः आध्यात्मिक यहाँ हम उसे स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते है, है। हाँ, समयसार जहाँ पूर्णतया आध्यात्मिक है वहाँ जिससे उक्त भूल सुधारी जा सके और उस भूल की गलत नियमसार आध्यात्मिक के साथ तत्त्वज्ञान प्ररूपक भी है। परमारा आगे न चले। नियमसार की वह ५३वी गाथा समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकाय इन तीन
पवनमार और पनास्तिकार हननी ओर टीकाकार पद्मप्रभमल धारिदेव द्वारा प्रस्तुत उसकी पर आचार्य अमृतचन्द्र की सस्कृत-टीकाएँ है, जो बहुत ही टीका निम्न प्रकार हैदुरूह एव दुरवगाह है। किन्तु तत्त्वस्पर्शी और मूलकार
___सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा। आचार्य कुन्दकुन्द के अभिप्राय को पूर्णतया अभिव्यक्त करने ____ अंतर हेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदो ॥५३-1 वाली तथा विद्वज्जनानन्दिनी है। नियमसार पर उनकी
__'अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारण सस्कृत टीका नही है, जब कि उस पर भी उनकी सस्कृत
वीतराग-सर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनपदार्थटीका होना चाहिए, यह विचारणीय है।
समर्थ द्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षव. तेप्युपचारतः
निर्णयहेतुत्वात् अन्तरङ्गहेतव इत्युक्ता दर्शनमोहनीयकर्मक्षयनियमसार पर पद्मप्रभमलधारि देव की सस्कृत-व्याख्या
प्रभते: सकाशादिति।' है, जिसमे उन्होने उसकी गाथाओ की सस्कृत गद्य व्याख्या
--टीका पृ० १०६, सोनगढ स० तो दी ही है। साथ मे अपने और दूसरे ग्रन्थकारो के प्रचुर
गाथा और उसकी इस सस्कृत-व्याख्या का हिन्दी सस्कृत-पद्यो को भी इसमे दिया है। उनकी यह व्याख्या
अनुवाद, जो प० हिम्मतलाल जेठालाल शाह के गुजराती अमृतचन्द्र जैसी गहन तो नहीं है, किन्तु अभिप्रेत के समर्थन
अनुवाद का अक्षरश रूपान्तर है, श्री मगनलाल जैन ने इस मे उपयुक्त है ही।
प्रकार दिया हैकिसी प्रसग से हम नियमसार की ५३वी गाथा और 'सम्यक्त्व का निमित्त जिनसूत्र है जिन सूत्र के जानने उसकी व्याख्पा देख रहे थे। जब हमारी दृष्टि नियमसार वाले पुरुषों को (सम्यक्त्व के) अन्तरग हेतु कहे हैं, क्योंकि की ५३वी गाथा और उसकी व्याख्या पर गयी, तो हमे उनको दर्शन मोह के क्षयादिक है।' (गाथार्थ)। इस सम्यक्त्व प्रतीत हुआ कि उक्त गाथा की व्याख्या करने में उन्होंने परिणाम का बाह्यसहकारी कारण वीतराग सर्वज्ञ के मुख बहुत बड़ी सैद्धान्तिक भूल की है। श्री कानजी स्वामी भी कमल से निकला हुआ समस्त वस्तु के प्रतिपादन मे समर्थ उनकी इस भूल को नहीं जान पाये और व्याख्या के द्रव्यश्रुत रूप तत्त्वज्ञान ही है । जो मुमुक्षु है उन्हें भी उपचार अनुसार उन्होने उक्त गाथा के प्रवचन किये। सोनगढ़ और से पदार्थ निर्णय के हेतुपने के कारण (सम्यक्त्व परिणाम के) अब जयपुर से प्रकाशित आत्मधर्म में दिये स्वामी जी के अन्तरंग हेतु कहेहैं, क्योंकि उन्हें दर्शन मोहनीय कर्म के उन प्रवचनों को भी उसी भूल के साथ प्रकट किया गया अयादिक है।' है। सम्पादक डॉ. हुकुमचन्द जी भारिल्ल ने भी उसका इस गाथा (५३) के गुजराती पद्यानुवाद का हिन्दी