________________
१०, वर्ष ३५, कि०३
अनेकान्त
पद्यानुवाद भी मगनलाल जैन ने दिया है, जो निम्न गतियो मे विभिन्न प्रतिपादन किये है। परन्तु अभ्यन्तर प्रकार है
साधन सभी गतियों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय जिन सूत्र समकित हेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो। और क्षयोपशम बतलाया है। यथावह जान अन्तर्हेतु जिसके वर्शमोहक्षयादि हो॥५३॥ 'साधन द्विविध अभ्यन्तर बाह्य च । अभ्यन्तर वर्शन
श्रीकान जी स्वामी ने भी गाथा और टीका का ऐसा मोहस्योपशम. क्षय क्षयोपशमो वा । बाह्य नारकाणां ही प्रवचन किया है, जो आत्मधर्म मे भी प्रकाशित है। प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधन केषाञ्चिज्जातिस्मरण
किन्तु टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा की केषाञ्चिद्धर्मश्रवण केषाञ्चिद्वेदनाभिभवः । चतुर्थीमारभ्य गयी उक्त (५३वीं) गाथा की संस्कृत-टीका, दोनो (गाथा आ सप्तम्या नारकाणां जातिस्मरण वेदनाभिभवश्च । और सस्कृत-टीका) का हिन्दी अनुवाद और जिस गुजराती तिरश्चा केषाञ्चिज्जातिस्मरण केषाञ्चिद्धर्मश्रवणं केषाअनुवाद पर से वह किया गया है वह तथा स्वामी जी के ञ्चिज्जिनविम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव ।...' उन (गाथा और सस्कृत-टीका) दोनो पर किये गये प्रवचन
--स० सि० पृ० २६१ न मूलकार आचार्य कुन्दकुन्द के आशयानुसार है और न आचार्य अकलकदेव ने भी तत्त्वार्थवात्तिक (१-७) मे सिद्धान्त के अनुकूल है।
लिखा है कि वर्शनमोहोपशभादिसाधनम, बाह्य चोपदेयथार्थं मे इस गाथा मे आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन देशादि, स्वात्मा वा।'- अर्थात् सम्यक्त्व का अभ्यन्तर के बाह्य और अन्तरग दो निमित्त कारणो का प्रतिपादन साधन दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय और क्षयोपशम किया है। उन्होने कहा है कि सम्यक्त्व का निमित्त (बाह्य) है तथा बाह्य साधन उपदेशादि है और उपादानकारण जिनसूत्र और जिनसूत्र के ज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरग स्वात्मा है। हेतु (अभ्यन्तर निमित्त) दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय आदि इन दो आचार्यों के निरूपणो से प्रकट है कि सम्यक्त्व है। यहाँ 'पहदी-प्रभृति' शब्द प्रथमा विभक्ति के बह- का अभ्यन्तर (अन्तरग) निमित्त दर्शन मोहनीय कर्म का वचन-'प्रभृतयः' का रूप है। पचमी विभस्ति-'प्रभतेः' क्षय, क्षयोपशम और उपश म है । जिन सूत्र के ज्ञाता पुरुष का रूप नहीं है, जैसा कि सस्कृत-व्यख्याकार पद्मप्रभमल- सम्यक्त्व के अभ्यन्तर निमित्त (हेतु) नही है। वास्तव में धारिदेव और उनके अनुसर्ताओ (श्री कानजी स्वामी, जिन सूत्र ज्ञाता पुरुष जिन सूत्र की तरह एकदम पर (भिन्न) गुजराती अनुवादक प० हिम्मतलाल जेठालालशाह तथा है। वे अन्तरंग हेतु उपचार से भी कदापि नहीं हो सकते । हिन्दी अनुवादक श्री मगनलाल आदि) ने समझा है। क्षायिक सम्यग्दर्ग: को केवली या श्रुतकेवली के पाद'प्रभृति' शब्द से आचार्य कुन्दकुन्द को दर्शन मोहनीय कर्म सान्निध्य में होने का जोगिद्धान्त शास्त्र मे कथन है उसी के क्षयोपशम और उपशम का ग्रहण अभिप्रेत है, क्योकि को लक्ष्य में रख कर गाथा मे जिन सूत्र के ज्ञाता पुरुषों वह दर्शन मोहनीय के क्षय के साथ है, जो कण्ठत उक्त (श्रुतकेवलियों) को सम्यक्त्व का बाह्य निमित्त कारण कहा है। और इस प्रकार क्षायिक, क्षयोपशमिक और औपशमिक गया है। उन्हे अन्तरग कारण कहना या बतलाना सिद्धान्तइन तीनो सम्यक्त्वो का अन्तरग निमित्त क्रमश दर्शन- विरुद्ध है। उनमें दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयादिका सम्बन्ध मोहनीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम और उपशम है। अतएव जोड़ना भी गलत है। वस्तुतः सम्यक्त्व के उन्मुख जीव मे 'पहुदी' शब्द प्रथमा विभक्ति का बहुवचनान्त है, पचमी ही दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम या उपशम विभक्ति का नहीं।
होना जरूरी है; अतएव वह उसके सम्यक्त्व का अन्तरंग सिद्धान्त भी यही है। आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि हेतु है और जिन सूत्र श्रवण या उसके ज्ञाता पुरुषों का (१-७ में तत्त्वार्थ सूत्र के निर्देश स्वामित्व साधन...' आदि सान्निध्य बाह्य निमित्त है। सूत्र (१-७) की व्याख्या करते हुए सम्यग्दर्शन के गह्य और कुन्दकुन्द भारती के सकलयिता एवं सम्पादक डॉ. अभ्यन्तर दो साधन बतला कर बाह्य साधन तो चारों पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने भी नियमसार की उक्त