Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 69
________________ जरा सोधिए ! है ही नही । तथाहि विपर्यास का भय रहता है।' 'प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरण, प्राणं किलस्यात्मनो.। यह सभी जानते है कि हमारा समाज मुख्यतः ज्ञानं तत्स्वयमेव शास्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् ।।' व्यवसाई समाज है और धर्म सम्बन्धी विशेष ज्ञान के लोक में स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, मन-वचन- अभाव में उसका धार्मिकसम्बन्ध मात्र परंपरागत श्रद्धा काय, आयु और श्वासोच्छ्वास के रहने को व्यवहार से से ही जुड़ा रह गया है । घामिक आचार विचार की प्राण कहा जाता है और इनके उच्छेद को मरण कहते है। दृष्टि मे तो वह सर्वथा विद्वानों से बंधकर ही रह गया पर, वस्तुत. ये पुद्गल मे होने वाले विकार भाव है। ये है और उसने अपनी श्रद्धानुसार अपने विद्वानों-गुरुओं का आत्मा के प्राण कैसे हो सकते है ? प्राण तो वे हैं जो चयन कर लिया है। फलत: आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तशाश्वत् साथ रहें-तद्रूप हों। आत्मा का प्राण तो ज्ञान चक्रवर्ती के बचनों में समाज को दोषी करार नहीं दिया है जो सदा आत्म-रूप है-कभी भिन्न नहीं होता फिर जा सकता। वे कहते हैऐसे में आत्मा के मरण की सम्भावना ही कैसे हो सकती 'सम्माइट्ठी जीवो उवइटें पवयणं 'तु सद्दहदि । है ? लोग मरण से क्यो भयभीत है ? कहीं इस भय में मोह सद्दहदि असब्भावं, अजाणमाणो गुरुणियोगा॥'तो कारण नही, जरा सोचिए । अर्थात् अज्ञानी गुरु के उपदेश से सम्यग्दृष्टि जीव (भी) ३. कौन किसके पीछे दौड़े ? विपरीत तत्व का श्रद्धान कर लेता है । और सम्यक्त्वी 'खेद यह है कि वर्तमान दिगम्बर सम्प्रदाय स्वयं कून्द- बना रहता है। कुन्द आम्नाय को मानता है, परन्तु उनकी मूल-कृतियो दूसरी ओर, विद्वानों-गुरुओं की व्यवस्था अपनी का प्रामाणिक सपादित सस्करण प्रस्तुत नहीं कर सका। है। कीन विद्वान-गुरु कब, क्यों और क्या कहते है इसे 'प्रदर्शन और दिखावे में धन का व्यय करने वाले समाज वे जाने । पर यदा-कदा बहुत से प्रसंगों में विरोध परिको आप ही इस ओर मोड सकते है। आप श्चिय ही लक्षित होने से यह तो सिद्ध होता ही है कि कहीं विसगति एक सराहनीय कार्य कर रहे है, बधाई स्वीकार करें। अवश्य है फिर वह विसगति आर्थिक कारण से, सामाजिक उक्त अंश एक विद्वान के उस पत्र के है, जो उन्होने वीर कारण से या अन्य किन्ही कारणो से ही क्यों न हो? सेवा मन्दिर से प्रकाशित पुस्तक 'जिन शासन के कुछ गत मास एक सेठ जी ने मुझसे जो हृदयग्राही वचन विचारणीय प्रसग' पर सम्मति देते लिखा है । विद्वान ने कहे उनमे बल था-मानो सेठ जी ने विद्वानों की टीस विषय सबंधी कुछ दृष्टिकोण भी दिए है, जिन पर यथा- को पहिचाना है और उनका इधर लक्ष्य है। बोले-'पंडित अवसर प्रसग के अनुसार प्रकाश डाला जाएगा। फिल- जी, अब तक सेठों के पीछे विद्वान दौड़ते रहे हैं, हमारा हाल तो बात है-कुन्दकुन्द के साहित्य और दिगम्बर प्रयत्न है कि अब विद्वानों के पीछे सेठ दौड़े।'-उक्त समाज के मोड़ की। भाव विद्वत्समाज के सन्मान मे और उन्हें आर्थिक संकट निःसन्देह, कुन्दकुन्द-साहित्य अमूल्य निधि है यदि से उबारने मे प्रशसा योग्य है, ऐसे विचारवान सेठों पर भाषा की दृष्टि से उसमें विसंगति आई हो तो उसकी समाज को भी गर्व होना चाहिए। पर, प्रश्न है कि एक सभाल विद्वानों का धर्म है । पर, इस सम्बन्ध में जब तक के दौड़ने से समस्या हल हो सकेगी क्या? दौड़ना फिर भी कोई विश्वस्त और प्रामाणिक व्यवस्था न हो जाय तब एकांगी ही रहेगा। अब विद्वान दौड़ते हैं फिर सेठ दौड़ेंगे, तक हमें सि० आ० श्री पडित कैलाशचन्द्र शास्त्री के दौडना एकांगी ही रहेगा। हम चाहते है इसमें कुछ संशोउद्गारों की कद्र करनी चाहिए-'प्राकृत भाषा के ग्रन्थो धन हो—'दोनो ही दौड़ें', विद्वानों की दौड़ सेठों तक हो को भाषा की दृष्टि से सशोधन करना ठीक नहीं है। और सेठों की दौड़ विद्वानों तक। हो, दौडकी दष्टि में संस्कृत भाषा का तो एक बंधा हुआ स्वरूप है किन्तु भेद आए। विद्वान दौड़ें, उनके सेठों और समाज को प्राकृत की विविधता में यह संभव नहीं है, इससे अर्थ में धार्मिक-संस्कार देने के भाव में, उन्हें स्वाध्यायी बनाने के

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