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जीवंधर- कथानक के स्त्रोत
अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के साक्षात् भक्त एव शिष्य, वर्तमान अवसर्पिणी में भारत क्षेत्र के अन्तिम कामदेव तथा तद्भव मोक्षगामी जीवधरस्वामि का पुण्यचरित्र अति प्रेरक एवं बोधप्रद है इतना ही नहीं, इन परम तेजस्वी वीरवर एव पुण्यश्लोक हेमाङ्गदनरेश महाराज जीवधर का रोचक एव कौतूहलवर्द्धक कथानक कम-से-कम दिगम्बर परम्परा मे अनि लोकप्रिय भी रहना आया है । संस्कृत, अपभ्रंश, तमिल, कन्नड, हिन्दी आदि कई भाषाओं मे और विभिन्न शैलियों में निबद्ध लगभग वीस रचनाए तो इस विषय पर अधुना ज्ञात एव उपलब्ध है जिनमे से कई अपने ढंग की बेजोड है।
जीवधरकुमार की गणना चौवीस कामदेव में की जाती है । इस परम्परा का मूलाधार क्या और कितना प्राचीन है, यह गवेपणीय है। तिलोयपत्ति (४ / १४७२) मे मात्र यह निर्देश प्राप्त होता है कि नौबीस जिनवरो (तीर्थकरो) के काल मे बाहुबलि को प्रमुख करके निरुपम आकृति वाले चौबीस कदर्प या कामदेन हुए है। उत्तरपुराण के अनुमार जीवधर मुनि के अप्रतिमरूप को देखकर श्रेणिक को उनके विषय में जिज्ञासा हुई, जिसका समाधान सुधर्मास्वामी ने जीवर चरित्र का वर्णन करके किया। वादीसहरि की गद्यचिन्तामणि के अनुसार तो श्रेणिक को यह भ्रम हो गया कि यह स्वर्गों के कोई देव है जो यहाँ मुनिवेष में आ विराजे है। अतएव कामदेव होने के कारण जीवधर एक पुराणपुरुष है और क्योकि वह भगवान महावीर के रूप मे मुनिरूप में दीक्षित हुए, उसी तीर्थ मे केवलज्ञान प्राप्त करके राजगृह के विपुलाचल से ही उन्होने निर्वाणलाभ किया, वह एक ऐतिहासिक महापुरुष भी है । उनकी राजधानी 'राजपुर' तथा हेमागद देश का भौगोलिक वर्णन भी सुदूर दक्षिण का अर्थात् कर्णाटक केरल तमिल भूभाग का ही सकेत करता है ।
विवारिधि डा० ज्योतिप्रसाद जैन
प्राप्त साहित्य में जीवधर कथा की दो स्पष्ट धाराएँ मिलती है एक का प्राचीनतन उपलब्ध एवं ज्ञात स्रोन आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण (ल० ८५०-८१७ ई०) है। पुष्पदत ने अपने अपभ्रंश महापुराण (९६५ ई० ) में तथा तमिल श्रीगणम में व रधु शुभचन्द्र आदि कई परवर्ती लेखको ने उत्तर पुराण के कथानक को अपना आधार बनाया किन्तु वादीनिहरिकृत गद्यचिन्तामणि एव क्षत्रचूडामणि और तिरुतकदेवकृत तमिन जीवकचिन्तामणि के कथानक में जहां परस्पर असून सादृश्य है, वही उत्तरपुराण की कथा से वह अपने मौलिक अन्तर भी प्रकट करता है । हरिचन्द्रकृत जीवन्धरचम्पू से लगता है कि दोनों ही धाराओं में प्रभावित है दो परिचित रहा है।
अब प्रश्न यह है कि कथा का मूलाधार उपरोक से किस ग्रंथ को माना जाय, या उनसे भी प्राचीनतर कोई अन्य स्रोत थे ?
उत्तरपुराणकार गुणभद्र एक अत्यन्त प्रमाणिक आचार्य है। उन्होने स्वगुरुमेन स्वामी (६३७ ई०) के अपूर्ण आदिपुराण को पूर्ण किया, नरउत्तर अपने उत्तरपुराण मे शेष २३ ती करो तथा सम्बन्धित अन्य शलाका पुरुषो एवं विशिष्ट व्यक्तियों के चरित्रों को विद्ध किया था--- आदिपुराण एव उत्तरपुराण ही संयुक्त रूप से महापुराण कहलाए । भाषा, शैली, संक्षेप, विस्तार आदि को छोडकर, उनके पौराणिक कथानक निराधार नहीं हो सकते उनके सन्मुख तद्विषयक पूर्ववर्ती साहित्य अवश्य रहा । कवि परमेश्वर ( अनुमानित समय लगभग ४०० ई०) के वागार्थ - संग्रह नामक पुराणग्रन्थ का तो जिनसेन और गुणभद्र दोनों ने स्पष्ट उल्लेख किया है तथा उनके कई परवर्ती पुराणाकरो एव शिलालेखों मे भी उनके उल्लेख प्राप्त है । कवि प्राय परमेश्वर के समसामयिक या कुछ आगे-पीछे के