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असली मैं और नकली मैं
0 श्री बाबूलाल जैन, कलकत्ता वाले
मैं दो प्रकार का है-एक असली और एक नकली। मारने में भी । जैसे मैने एक बार मे ही सफाया कर दिया परन्तु दोनों एक साथ नहीं रहते जहाँ असली मै है वहा या मैने इतने लोगो को बचा दिया। इसी प्रकार चोरी नकली नही और जहाँ नकली मै है वहाँ असली मै नहीं। यह करने में भी और न करने में भी। ब्रह्मचर्य पालने में भी नकली मैं ही परमात्मा को देखने के लिये, परमात्मा बनने और अब्रह्म का सेवन करने मे भी। परिगृह के गृहण में में रुकावट है। रुकावट ही नहीं, यह फाटक भी बन्द है भी आता ही है और परिग्रह के त्याग मे उससे भी ज्यादा आगल भी लगी है और ताना भी पड़ा हुआ है। यही जीव आता है। मैने इतना बडा त्याग किया है मैं लाखों की का संसार है और यही महापाप है। यही हिंसा है। इसको सम्पत्ति छोडकर त्यागी बना हं। मैने पहले बड़ी-बड़ी मौज समझना जरूरी है।
की है अब सब कुछ त्याग दिया है इत्यादि । इसी प्रकार एक ज्ञान का कार्य हो रहा है जानने रूप-ज्ञातादष्टा
आने का विकल्प उठाते है कि मै इतने लोगो की सेवाएं रूप, ज्ञायकरूप-एक मन सम्बन्धी विकल्प हो रहे है भाव
करूँ इतने लोगो को दान करने अथवा इतने लोगों को हो रहे है कोई शुभरूप-दयादानादि, भगवान की भक्ति, त्याग
बन्दी कर ल इत्यादि रूप। इसी प्रकार बाहरी क्रिया वृत रूप है और कोई अशुभरूप क्रोधादिरूप द्वेषरूप दूसरे
जिनको धार्मिक क्रिया कहते है पूजा दान व्रत उपवास का बुरा करने का हिंसा करने का चोरी करने का झूठ ।
मन्दिर बनवाना सेवा आदि करना इसमे भी अहंपना बोलने का परिग्रह का अब्रह्मरूप है । इसी प्रकार बाहर मे
आता है चाहे हम बाहर मे प्रगट करे या न करें परन्तु शरीर की क्रिया है कोई शुभरूप है कोई अशुभ रूप है।
भीतर मे यह जरूर बनता है कि मैंने कुछ किया है ऐसा हम जब कोई कार्य करते है तो तीन काम होते है जसे
अहपना । इस प्रकार दोनो प्रकार की-मन के भाव और मैं बोल रहा हू तो होठ हिलने रूप शरीर की क्रिया है
शरीर की क्रिया में होता है चाहे वह परिणाम ऊंचे
से ऊँचे कोटि के शुभ हो चाहे अशुभ हो । यहाँ भाव शुभ भीतर बोलने रूप राग भाव है और उन दोनो के जानने ।
है कि अशुभ है इससे प्रयोजन नही प्रयोजन हैं अहंपना वाला ज्ञातापना है। ज्ञातापने का भाव तो आत्मा से उठ
का। अलग शुभ मे अपना है तो भी और अशुभ में रहा है क्योकि ज्ञान और आत्मा का एकत्वपना है और
अहपना है तो भी अहम्पना तो अपने में नही है पर में मन सम्बन्धी विकारी भाव और शरीर की क्रिया कर्म के
ही है। हमारा ससार शुभ-अशुभभाव नहीं परन्तु शुभ सम्बन्ध को लेकर हो रही है। जब हग ज्ञान की क्रिया को
अशुभ भावो में अहपना है। नही पकडते है तो मन सम्बन्धी विकारी भावो मे और शरीर की क्रिया में अहपना मानते है कि मै ह—ये मेरे हम ऐसा मान लेते है कि शुभ भाव हुए हम तो है, मैने ऐसा किया है। इन प्रकार का अहपना चाहे धर्मात्मा है अशुभ हुए पापी हैं। यह तो बहुत मोटी बात है अशुभ भावों में आवे चाहे शुभ भावो -- चाहे शुभ क्रिया में यहाँ पर तो सवाल है कि हमारा अहम्पना किसमें है चाहे अशुभ क्रिया में आवे यही नकली मै पना है। साधारण अपने निज भाव ज्ञाता दृष्टा मे, ज्ञायक में, चैतन्य में अथवा रूप से यह मैं पना झूठ बोलने में भी आता है मैंने ऐसा झूठ शुभ-अशुभ भावों मे और शरीर सम्बन्धी क्रिया मे। अगर बोला और सत्य में भी आता है मेरे बराबर कोई सत्य हमारा अहम्पना अपने में है जो वहाँ दोनों (मन सम्बन्धी बोलने वाला नही-जीव को बनाने में भी आता है और शरीर-सम्बन्धी) का जानने वाला है अथवा इन दोनों में।