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वीर सेवा मन्दिर के चिर सहयोगी स्व. ला, पन्नालाल जैन अग्रवाल
था । हमारी रिलीजन एड कल्चर आफ जैनिज्म के मूल प्रेरक भी ० पन्नानान जी एवं ला० प्रेमचन्द्र जी थेवह पुस्तक भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुई ( उसके दो संस्करण समाप्त हो गए, तीसरा मुद्रणाधीन है हमारी तो बात ही क्या, स्व० बह्मचारी शीतलप्रसाद जी, स्व० बैरिस्टर चम्पतराय जी, स्व० बा० कामताप्रसाद जी आदि अनेक लेखको को पन्नालाल जी ने प्रेरणा तथा सामग्री सुलभ कराने में सहयोग दिया। जिस लेखक से किसी पुस्तक के लिखने का वचन वे लेते थे उसे दो-तीन दिन बाद निरन्तर पत्र लिख कर याद दिलाने, प्रगति जानने, आवश्यक सूचना या सदर्भ सामग्री आदि पहुंचाने के लिए पत्र लिखते रहते थे। हमे उनसे प्राप्त पत्रो की संख्या सैकडो मे है । स्व० बा० उग्रसेन जी ( परिषद परीक्षा बोर्ड वाले) भी लेखको से काम कराने और पत्र लिखने मे ऐसे ही निरालस एव तत्पर रहते थे।
दिल्ली महानगरी के मौहल्ला चरसेवालों की गली कन्हैयालाल अत्तार के निवासी स्व० ला० पन्नालाल जैन अग्रवालका साधक ८० वर्ष की परिपक्व आयु में गत २ अप्रैल १६८२ ई० को देहान्त हो गया। लाला पन्नालाल जी बड़े समाजचेता एवं कर्मठ किन्तु एक समाजसेवी सज्जन थे। ऊंचा लम्बा कद, छरहरा बदन, कदचित श्यामन वर्ष सौम्य मुखमुद्रा, मन्दस्मिति, बहुत कम बोलना, सीधे न कर बैठना पड़ा होना व चलना, धोती-कुर्ता व टोपी वाली सादी वेषभूषा - सामने वाले व्यक्ति को आश्वस्त करने एव उस पर अनुकूल प्रभाव छोडने वाला व्यक्तित्व था । दिल्ली की दि० जैन पंचायत, जैन मित्र मण्डल आदि अनेक सस्थाओ के साथ प्राय वह जीवनपर्यन्त सम्बद्ध रहे । दिल्ली जैन समाज तथा उसके मंदिरों: शास्त्रमदाशे व संस्थाओं के इतिहास में उनकी विशेष रुचि एव जानकारी थी। दिल्ली की जैन रथ यात्रा के इतिहास पर उन्होंने पर्याप्त सामग्री एकत्रित की थी और उस पर एक पुस्तक लिखने का उन्होने हमसे आग्रह किया था किन्तु अन्य उपस्तताओं के कारण जब विलम्ब होता देखा तो उन्होंने स्व० बा० माई दयाल जैन से वह पुस्तक लिखा कर प्रकाशित की। दिल्ली के जैन मन्दिरो एवं संस्थाओं पर भी उन्होंने हिन्दी एवं अंग्रेजी में परिचयात्मक पुस्तिकाएँ लिखकर प्रकाशित की। दिल्ली के कई मन्दिरों के शास्त्र महारों की सूचियां भी उन्होंने वीर सेवा मन्दिर के मुखर अनेकान्त में प्रकाशित कराई। हमारी पुस्तक प्रकाशित जैन साहित्य' की भी बहुत सी आधारभूत सामग्री उन्होंन एकत्रित की थी, अतएव उस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर 'संयोजक' के रूप में हमने उनका नाम दिया था। पुस्तक की तैयारी के समय भी जब जो सूचनाएँ हमने चाही उन्होने प्रयत्न करके भरसक प्रदान की । पुस्तक तैयार होकर भी लगभग दस वर्ष अप्रकाशित पडी रही, अन्तत उन्होने जैन मित्र मंडल दिल्ली द्वारा उसे १६५८ मे प्रकाशित करा दिया । 'तीर्थकरों के सर्वोदय मार्ग' को हमसे लिखाने की प्रेरणा भी उन्होने जनवाच क० दिल्ली के ता० प्रेमचन्द्र जैन को की थी, जिसे सा० प्रेमचन्द्र जी ने अपने स्वर्गीय पिताजी की पुण्य स्मृति मे वितरणार्थं प्रकाशित कराया
लाला पन्नालाल कुछ विशेष पनि विद्वान या साहित्यकार नहीं थे और बहुत वर्षों तक पुस्तक-विक्रेता का व्यवसाय करते रहे। यह आवश्यक है कि अपनी दुकान मे भी जैन पुस्तके ही अधिकतर रखते थे । किन्तु साहित्यजगत की जो अद्वितीय सेवा उन्होने की वह थी किसी भी जैन या अर्जुन विद्वान को इच्छित साधन-सामग्री प्रकाशित पुस्तकें, दिल्ली के किसी भी शास्त्र भंडार के शास्त्रों की हस्तलिखित प्रतियों तथा पुस्तकालयों के संदर्भ प्रथ तत्परता पूर्वक योगकर मुहैया करना, और काम हो जाने पर उसी तत्परता के साथ उन्हें वापस मंगा लेना । इस बेमिसाल साहित्य सेवा के कारण वह अनेक जैनाजैन साहित्यकारों के के लिए सुपरिचित थे। ऐसा निःस्वार्थ एव सदा तत्पर साहित्यिक सहयोग एवं प्रेरणा देने वाला दूसरा कोई व्यक्ति प्रायः देखने-सुनने में नहीं आया। इस प्रकार अनेक विद्वान व लेखक उनके आभारी हुए और अनेक पुस्तकों के सृजन मे वह परोक्ष रूप से सहयोगी रहे ।
वीर सेवा मन्दिर के संस्थापक स्व० आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' के प्रति ला० पन्नालाल जी का निश्छल आदर भाव था। मुख्तार सा० द्वारा १६३५-३६ ई० मे सरसावा में वीर सेवा मन्दिर की स्थापना होने के (शेष पृष्ठ २४ पर)