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जरा सोचिए !
१. संयोग और वियोग?
हैं ? संयोग (अशुद्धि) की ओर या वियोग (शुद्धि) की वस्तु के 'स्व' में 'पर' का मेल संयोग कहा जाता है।
ओर ? कही हम सयोगो को अच्छा मान उनसे चिपके तो और ऐसी पर्याय 'सयोगी पर्याय' होती है। संयोगी पर्याय नही जा रहे ? या-वियोगों में दुखी तो नहीं हो रहे ?
जरा सोचिए ! सर्वथा अशुद्ध होती है चाहे वह शुभ, शुभतर या शुभतम ही क्यों न हो। इसके विपरीत-शुद्धपर्याय हर वस्तु में
२. क्या मरण वास्तविक है ? स्व-जाति को लिए हुए सर्वदा और सर्वया बन्धरहित, अन्यत्व रहित, भेदों से मुक्त, अपने में नियत और पर
पर्याय विनाशीक, क्षण-क्षण मे बदलने वाली है। असंयुक्त होती है-इस पर्याय मे अन्य सबका पूर्ण वियोग
आपको और हमें पता ही नही चलता कि किस समय, होता है। इसका तालर्य ऐसा समझना चाहिए कि संयोग
वया बदल जाता है । हाँ, बदलता अवश्य है। बाल काले और वियोग दोनों के फल क्रमश अशुद्धि और शुद्धि है
से सफेद होते है, बालकपन से युवापन आता है और वृद्ध
स अर्थात् सयोग अशुद्धि में और वियोग शुद्धि में निमित्त है। पन भी। एक दिन ऐसा भी आता है कि प्राणियो का लोक में भी संयोगी (मिलावटी) अवस्था को नकली और भौतिक शरीर भी उन्हें छोड़ देता है और उन्हें मतक वियोगी (मिलावट रहित) अवस्था को असली कहते हैं नाम से पुकारा जाता है। ये सब कैसे और क्यो कर घटित और लोग इसी भाव में वस्तुओं के मूल्य आंकने की हो रहा है । व्यवस्था करते हैं। सुवर्ण में जितने-जितने अश में स्व- बाज लोग समय को दोष देते हैं। कहते है समय जाति भिन्न-पर-किट्रिमादि का संयोग होता है उतने- बदल गया तो सब बदल रहा है । पर, जैन-दर्शन के आलोक उतने अंश में उसका मूल्य कम और जितने-जितने अश मे में सांसारिक सभी वस्तुयें और संसारातीत सिद्ध-भगवान पर-किट्टकालिमादि का वियोग होता है उतने-उतने अंश भी प्रति समय अपने में बदल रहे है-सिद्धों में षड्गुणी में उसका मूल्य अधिक आंका जाता है।
हानि-वृद्धि चलती है और सांसारिक वस्तुयें अपनी पर्यायों
में स्वाभाविक, स्वतः परिणमन करती रहती हैं-सभी में तीर्थंकरों ने इसी मूल के आधार से सयोगो के त्याग
नयापन आ रहा है। पुरानापन जा रहा है और सभी अपने और वियोगो के साधन जुटाने का उपदेश दिया है। वे
स्वभाव में ध्रव हैं-द्रव्य-स्वभाव कभी नहीं बदलता । जैसे स्वयं काय से तो नग्न-अपरिग्रही थे ही, उनमें मनसा
अंगूठी के टूटने और कुण्डल पर्याय को धारण करने पर भी और वाचा भी पर के वियोग रूप पूर्ण अपरिग्रहत्व था
सोना सोना ही है वैसे ही षड्द्रव्य परिवर्तनशील होकर भी पर का असंयोग था। वे अपरिग्रह-वीतरागता पर सदा
अपने स्वभाव रूप ही है। लक्ष्य दिलाते रहे। जिस-जिस परिमाण मे परिग्रह की
संसार मे जिसे 'मरना' नाम से कहा जाता है और न्यूनता में तरतमता होगी उस-उस परिमाण में पर-भावों
जिसमें लोग संतप्त होते-रोते-धोते हैं, वह वस्तु का नाश -हिंसा झूठ, चोरी और कुशील आदि का परिहार भी
नहीं अपितु पर-भाव का वियोग मात्र है-यदि ऐसा होगा और ये परिहार स्वाभाविक-बिना किसी प्रयत्न
वियोग सदा काल बना रहे और पर का सयोग न हो तो के होगा।
वस्तु सर्वथा शुद्ध-सिद्धवत् निर्मल है-इसमें संताप वस्तु की उक्त स्थिति के बावजूद-जब संयोग में कैसा? लोक में जिन प्राणों के उच्छेद को मरण कहा अशुद्धि है और वियोग में शुद्धि है, तब हम कहा जा रहे जाता है, वह मरण व्यवहार ही है। निश्चय से तो मरण