________________
३२, वर्ष ३५, कि०२
अनेकान्त
प्रयत्न में; आर्थिक दृष्टिकोण को लेकर नही । सेठ दौड़ें अपने ५. युवक क्या करें? ज्ञान-चारित्र के लाभ मे, धर्म प्रभावना के लाभ मे, विद्वानो धर्म के विषय मे जो विविध मान्यतायें है, उनको से जगह-२ अपने यशोगान की प्रेरणा के लिए नही। हमारी यथावत् हृदयगम करने की आवश्यकता है। हमे स्पष्ट रूप दृष्टि मे वे विद्वान व्यर्थ है जिनका समाज उन्मार्ग पर जाय मे जान लेना चाहिए कि धर्म वस्तु का स्वभाव है जिसका और वे देखते रहे तथा वे सेठ और थावक व्यर्थ है जिनके लेन-देन नही हो सकता–व्यवसाय नही किया जा सकता। धर्मस्तम्भ विद्वान आर्थिक-चिन्ता मे जलते रहे। इस तरह व्यवसाय मे अल्प पूजी को अधिक करने का उद्देश्य है समाज को विद्वानो और विद्वानो को समाज का सबल और धर्म में मात्र आत्म-पूजी की सभाल का उद्देश्य । हो। अब तक जो विसगति चलती रही है वह इसी का व्यवसाय मे लेन-देन है और धर्म में 'पर से निर्वत्ति' । अत परिणाम है कि एक ने दूसरे की आवश्यकताओ को नही धर्म को व्यवसाय नही बनाया जा सकता। इसीलिए स्वामी समझा और यदि समझा तो गलत समझा। सबने आव- समन्तभद्र ने कहा कि 'धर्म मे नि काक्षित अग का होना श्यकता के माप मे धन या यश को तराजू बनाया 'जब आवश्यक है।' जो जीव धर्म मे किसी आकांक्षा का भाव कि प्रसग धामिक था।
रखते हो वे धामिक या धर्मात्मा नही, अपितु व्यवसायी है।
__आज जो प्रवृत्ति चल रही है उसमे व्यवसाय मार्ग ४. क्या कुव्यसन, सुखकर होंगे?
अधिक परिलक्षित होता है। कतिपय लोग अल्प त्यागकर जैन परम्परा मे अष्टमूलगुण धारण करने का अनादि उससे अधिक प्राप्त करना चाहते है या त्याग कर भी विधान है। जो जीव मद्य-मास मधु का त्याग और अहिंसा, उसका मोह नही छोड़ते । कतिपय अपने दान-द्रव्य के बदल सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-परिमाण अणवत के उमका अधिक फल चाहते है । जैसे कुछ देकर वे सस्था के धारी है वे श्रावक है अर्थात् श्रद्धा-विवेक और क्रियावान सदस्य ही बन जाय, उनकी पूछ ही हो जाय, उनके नाम है। वे ही सम्यक् रत्नत्रय के अधिकारी है और वे ही उभय का अमरपट्ट लग जाय आदि । इसी प्रकार तीर्थ-वन्दना में लोक मे सुख पाते है।
भी लोभ-लालच है-उसमे भी फल चाहना है, लोग उसमे यह जो आप आज लोगो मे आपाधापी-मारामारी देख
भी सासारिक अभीष्ट की चाहना कर बैठते है। कही-कही रहे है वह सब मूलगुण धारण न करने और सप्त-कुत्र्यसनो
तो धन की आड मे-थोड़ा सा देकर किसी समृद्ध धार्मिक मे फँसे रहने के परिणाम है। कही गुरुद्वारो जैसे पवित्र
न्यास की सम्पत्ति पर शासन जमाने की प्रवृत्ति भी लक्ष्य स्थानो में सिगरेट रखने या पीने पर, मन्दिर-मतियो पर
मे आती है। कई लोग पार्टीबन्दी के चक्कर मे सस्थाओ मास फैकने पर और कही मद्यपान करने पर विवाद खडे
तक को ले ड्वते है या वहा विवादो का वाताबरण तैयार
करा देते है, आदि । होना-अपवित्र वस्तुओ के सेवन के ही परिणाम है । यदि
हमे स्मरण रखना चाहिए कि धर्म और धर्म-संस्थाओ लोग जैन मान्यताओं मे बद्ध हो तो सब झगडे ही शान्त
को भी ऐसे पात्रो की जरूरत है जो सर्वथा उनके योग्य हो। रहे । आश्चर्य तो तब होता है कि जब हमारी सरकार
शिक्षा व साहित्यिक संस्थाओ में तद्विषय और तद्भाषा एक ओर तो मद्यपान, बीडी-सिगरेट जैसे पदार्थों के सेवन
विशेषज्ञों की, मन्दिर आदि प्रतिष्ठानो मे धर्माचरण मे का निषेध करती है-उन पर प्रतिबन्ध लगाती है, उन
समुन्नत जनों की आवश्यकता है। इसी तरह जो शिक्षा मे पर नशा और जहर के लेबल लगवाती है और दूसरी ओर
उस विषय के अधिकारी न हो उन्हें शिक्षा संस्थाओ में उनके ठेके और लाइसेस बाटती है--शासन करने वाले
तथा धर्मावरण से शून्य व्यक्तियो को धार्मिक प्रतिष्ठानों मे कतिपय अधिकारी तक नशों में सराबोर रहते है। यदि ।
अगुआ नही होना चाहिए। इन कुप्रवृत्तियो पर अकुश न लगाया गया तो भविष्य
ऐसे ही जयन्तियो की परिपाटी भी उत्तम है यदि वह अधकारमयी वातावरण में झुलता रहेगा और वर्तमान भी लाला
लाभ के लिए हो, उससे धार्मिक प्रचार को बल मिलता सुखकर कंसे रहेगा ? जरा सोचिए !
(शेष पृ० आवरण ३ पर)