Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 65
________________ परिचिति 'जिन - शासन के कुछ विचारणीय प्रसंग' श्री पं. पद्मचन्द्र शास्त्री ने 'जिनशासन के कुछ विचारणीय प्रसंग' शीर्षक से प्रकाशित पुस्तिका में अपने सात लेख प्रस्तुत करके विद्वानों के लिए ऊहापोह करने तथा चिन्तन को स्फूर्त करने की पर्याप्त सामग्री दी है। शास्त्र पढ़ लेना एक बात है, परम्परा के अनुसार प्रतिपादन कर लेना भी उसी श्रेणी की एक बात है किन्तु जिन विषयो को लेकर विद्वानो में मतभेद दिखाई देता है अथवा अर्थसंगति को ठीक ढंग से पकड़ने मे शब्द या शब्दों के रूपान्तर विकल्प उत्पन्न करते है, उनसे जूझना और फिर न्याय संगत, तर्क संगत निष्कर्ष प्रस्तुत करना एक दूसरे ही प्रकार की कुशल प्रगल्भता है । पंडित जी अपनी वात असंदिग्ध होकर इसीलिए कह पाये है कि उन्होने सही अर्थों में व्यापक अध्ययन किया है और इस अध्ययन को चिन्तन-मनन द्वारा परिपुष्ट किया है । श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन, निदेशक- भारतीय ज्ञानपीठ ऋजु जड और वक्रजड पंडित जी ने अपना निष्कर्ष शीर्षक मे ही घोषित कर दिया--' भगवान पार्श्व के पंच महाव्रत ।' यह लेख इतनी विदग्धता और तार्किक अकाट्यता से लिखा गया है कि विवेचन श्वेताम्बर दिगम्बर मान्यता को प्रतिपादित करने वाले अनेक ग्रन्थों की पंजिका बन गया है । 'सावद्ययोग-विरति' 'सपुत्तदार' 'बहिद्धादान' आदि की चर्चा करते हुए जब 'परिगृहीता' के भेद को शास्त्र के आधार पर स्पष्ट किया तो विचित्र निष्कर्ष सामने आया । 'ऐसा प्रतीत होता है कि अपरिगृहीता में मैथुन शक्य नही, यह भ्रम ही ब्रह्मचर्ययाम को गौण या लुप्त करने में कारण रहा है। चूंकि मुनि सर्वथा स्त्री रहित होता है, उसके परिगृहीता मानी ही नहीं गई तो वह स्वभाव से ( परिगृहीता रहित होने से ) ब्रह्मचारी ही सिद्ध हुआ = अत: उसके लिए इस याम की आवश्यकता प्रसिद्ध नही की जाती रही और चार याम प्रसिद्ध कर दिए गए। 'चातुर्याम' शब्द के व्यवहार का एक दूसरा ही संदर्भ पडित जी ने दिया है अच्छा होता यदि संदर्भ कहां का है ? यह उद्धृत कर दिया होता' - 'अजातशत्रु ने स्वय बुद्ध को बतलाया कि वह स्वयं निगंठनातपुत्त ( महावीर ) से मिले और महावीर ने उनसे कहा किनिर्ग्रन्थ 'चतुर्याम संवर संवृत' होता है- ( १ ) जल के व्यवहार का वारण करता है (२) सभी पापों का वारण करता है (३) सभी पापो का वारण करने से घुतपाप होता हैं (४) सभी पापों का वारण करने में लगा रहता है । अतः फलित होता है कि ऊपर कहे हुए चातुर्यामसंवर' के अति सभी लेखो को पढने के उपरान्त पाठक को जो उपलब्धि होती है वह ज्ञान की समृद्धि की तो है ही, एक आह्लाद की अनुभूति भी उत्पन्न करती है कि पक्ष प्रतिपक्ष स्पष्ट हुआ और नया दृष्टिकोण हाथ लगा । णमोकार मन्त्र और नवकार मंत्र मे क्या अन्तर है ? ॐ की रचना - सिद्धि यदि सहमति को रेखाकित करती है। तो स्वास्तिक की संरचना के सम्बन्ध मे पडित जी का चिन्तन स्थापित प्रतीक की रेखाओं को नये मंगल- प्रदीप से उद्भासित करता है । महावीर चातुर्याम की चर्चा यद्यपि पार्श्वनाथ और के कालभेद एवं दृष्टि भेद पर आश्रित मानी जाती है, किन्तु पंडित पद्मचन्द्र जी ने इस चर्चा को बाईस और चौबीस तीर्थंकरों के परिपेक्ष्य मे रखकर दो प्रकार के श्रमणों का संदर्भ दे दिया—वे जो सरलमति हैं, और वे जो छली हैं --आत्म प्रवंचक । शास्त्र की भाषा में यही हैं १. प्रसंग -- ' दीघनिकाय - ( महाबोधि सभा, सारनाथप्रकाशन सन् १९३६) पृ. २१ पर निगंठनातपुत्त का मत । -सम्पादक

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