Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 23
________________ प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती - महामहोपाध्याय डॉ० हरीप्रभूषण जैन, साहित्याचार्य, उज्जन परिचय और उपाधि अनन्त संसार रूपी समुद्र से पार हो गया उस अभयनन्दि विक्रम की ११वी शताब्दी में एक अत्यन्त प्रतिभाशाली गुरु को मै नमस्कार करता हूं।" जैनाचार्य हुए जिनका नाम नेमिचद्र है । ये, दिगम्बर जैना- "जस्स य पायपसाएणणंतससारजलहिमुत्तिण्णो । गम 'षट् खण्डागम' और उसकी 'धवला' और जय धवला' वीरिंदणंदिवच्छो णमामि त अभयणंदिगुरूं ॥" टीकाओं के पारगाभी विद्वान् थे। इसी कारण उन्हे 'मिद्धांत (कर्मकाण्ड-४३६) चक्रवती' की महनीय उपाधि प्राप्त हुई थी। उन्होने धवल- इसी प्रकार कर्मकाण्ड में अन्यत्र (गाथा नं. ७८५) सिद्धान्त का मथन करके 'गोम्मटसार' तथा जय धवल- तथा लब्धिसार (गाथा न० ६४८) मे भी उन्होने अपने सिद्धान्त का मथन करके 'लब्धिमार' नामक ग्रन्थों की तीनो गुरुओ को प्रणाम किया है। रचना की। चामुण्डराय और उनके गुरु प्राचार्य नेमिचन्द्रगोम्मटसार ग्रन्थ के कर्मकाण्ड मे, उन्होंने लिखा है चामुण्ड राय, गगवशी राजा रायमल्ल (राचमल्ल) के कि "जिस प्रकार चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न से भारत वर्ष के प्रधानमत्री एव सेनापति थे। उन्होने अनेक युद्ध जीते और छह खण्डो को निर्विघ्न स्वाधीन कर लेता है, उसी प्रकार उसके उपलक्ष्य मे वीरमार्तण्ड, रणरंगमल्ल आदि अनेक मैंने अपने बुद्धि-रूपी चक्र से पट्खण्डागम सिद्धान्त को उपाधिया प्राप्त की। सम्यक् रीति से साधा।" इसे एक आश्चर्य ही समझना चाहिए कि जो व्यक्ति "जह चक्केण य चक्की छक्खण्ड साहियं अविग्घेण। अपने यौवन के प्रभातमे प्रबल शक्तिशाली राजाओं से युद्ध तइ मइचक्केण मया छक्खण्ड साहिय सम्म ॥३६७॥" कर विजय प्राप्त करता रहा, वही अपने जीवन की संध्या में आचार्य नेमिचन्द्र मदृश गुरुओं के पारस का स्पर्श पाकर संभवत. विद्वानों को, आचार्य नेमिचन्द्र के लिए इस कैसे एक अध्यात्मिक भक्त, सन्त, निर्माता और साहित्यकार उपाधिदान की प्रेरणा, जय धवला प्रशस्ति के उस श्लोक से प्राप्त हुई होगी जिसमे वीरसेन स्वामी के लिए कहा। नि सन्देह, चामुण्डराय अत्यन्त गुणी पुरुष थे। उन्होंने गया है कि "भरत चक्रवर्ती की आज्ञा की तरह जिनकी अपने जीवन मे चार महान कार्य किए : प्रथम-श्रवणभारती षट्खण्डागम मे स्खलित नही हुई।" वेलगोला स्थान पर, चन्द्रगिरि पर्वत पर चामुण्डराय वसति " "भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्डे यस्य नास्खलत् ।" नामक जिनालय का निर्माण और उसमें इन्द्रनीलमणि की (जय धवला प्रशस्ति-२०) एक हाथ ऊँची भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा की स्थापना, प्राचार्य नेमिचन्द्र के गुरु जो अब अनुपलब्ध है । द्वितीय-शक सवत् ६०० (वि०सं० आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने गुरुओं के नामो का उल्लेख, १०३५) मे चामुण्डराय पुराण की रचना। तृतीय--गुरु स्पष्ट रूप से, अपने ग्रन्थों में किया है। तदनुसार, आचार्य आचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसार ग्रन्थ पर 'वीर मार्तण्डी' अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि, उनके गुरु है। कम- नामक देशी भाषा (कनडी) मे टीका और चतुर्थकाण्ड में एक स्थान पर कहा गया है कि "जिनके चरणों श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरि पर, संसार का अदभुत शिल्प के प्रसाद से वीरमन्दि और इन्द्रनन्दि का वत्स्य (शिष्य), वैभव एव महान् आश्चर्य बाहबली स्वामी की सत्तावन

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