Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 43
________________ जिस समय शरीर की कोई अवस्था हो रही है उसी उठ रही है वह स्थल भिन्न है और जहां से भावों की और समय जानने का कार्य भी हो रहा है यहां तक जब सोता विचारों की क्रिया उठ रही है वह स्थल भिन्न है यह है तो उस समय भी कोई जान रहा है कि सो रहा है जानने वाला ही अपने को जानने वाला न समझ कर इन अगर नहीं जानता तो जागने पर यह कैसे कह सकता था विचारों के-भावो के चिन्ताओ के करने वाला समझ रहा कि आज नीद अच्छी आई । जिंदा है तो उसको जानता है है शरीर सम्बन्धी कार्यो के करने वाला उस सम्बन्धी दुखऔर मरता है तो उसको भी जान रहा है उसी प्रकार सुखको भोगने वाला समझ रहा है। उस जानने वाले को भीतर में सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा स्थूल से स्थूल विचार-भाव- कहा जा रहा है कि तू अपने को पर रूप मान रहा हैइच्छा जिस समय उत्पन्न हुई है उसी समय उसके जानने शरीर रूप जान रहा है विचारो और विकल्पो रूप जान का कार्य भी हुआ है। यहा पर एक तर्क है कि जब इच्छा रहा है और सुखी-दुखी हो रहा है तू उस रूप नहीं है तू उत्पन्न हुई उसके पहले उसको जाना तो जब थी ही नहीं तो जानने वाला है—जाननेरूप क्रिया का करने वाला है तो जाना कैमे। इच्छा मिटने के बाद जाना तो अभाव तु अपने आपको अपने रूप क्यो नही देखता? तू अपने होने पर कमे जाना इससे यह सावित होता है कि जिस आपको जानने वाला रूप देखे तो तू पावेगा कि मै शरीर समय इच्छा उत्पन्न हुई उसी समय जाना । इसमे एक तर्क रूप नही परन्तु उसका जानने वाला हूं उस शरीर की और है कि इच्छा ने ही इच्छा को जाना है अथवा क्रोध अवस्था अच्छी या बुरी का भोक्ता नहीं परन्तु जानने वाला ने ही क्रोध को जाना है तो उसका उत्तर है कि क्रोध के ह । तो शरीर की कैसी भी अवस्था क्यो न हो जावे उससे अभाव को जिसने जाना। इससे साबित होता है कि क्रोध मेरा क्या सम्बन्ध और उससे सुखी-दुखी होने का भी क्या के अलावा कोई जानने वाला भिन्न है जो क्रोध को भी सवाल है। यह नाम, यह जाति, यह कुल, यह मां-बाप जानता है और उसके अभाव को भी जानता है। भाई-बन्धु बाहर में पुरुष अथवा स्त्रीपना, धनवान अथवा इससे निष्कर्ष यह निकला कि हर कार्य मै तीन बाते गरीबपना सभी जब शरीर की अवस्था है और मै तो साथ-साथ हो रही एक शरीर की क्रिया, एक मनसम्बन्धी जानने वाला हूँ शरीर नही तो इनसेभी मेरा क्या सम्बन्ध विचारो की-भावो की-विकल्पो की क्रिया और एक रहा। अगर किसी ने गाली दी अथवा प्रशमा की बात जानने की क्रिया। पहली दो क्रिया बदलती रहती है कभी कही तो भी मै तो उसका जानने ही वाला ह शरीर नही शुभ होती है कभी अशुभ । कभी दान पूजा रूप-दयारूप तब मुझे हर्ष और विपाद क्यो ? किसी के भले करने रूप होती है कभी किसी को सताने- इसी प्रकार विचार उठ रहे है चिन्ता हो रही हैमारने रूप। कभी सत्य कभी अमत्य रूप होती है परन्तु भाव उठ रहे है, भीतर मे दया रूप भाव हुए और उस जानने का कार्य हर अवस्था मे एक रूप से चालू रहता है। जानने वाले से, उस भाव से साथ एकत्व जोड़ा तो उसमे वह हर हालत मे-हर अवस्था को जानता रहता है। अहम्पने को प्राप्त हो गया कि मैं कैसा दयाल हॅ मै उच्च पहली दो क्रिया एक शरीराश्रित और एक मनाश्रित है जो दर्जे का हू चाहे हम बाहर मे न कहें परन्तु भीतर में तो हमारे पकड़ में आती है। हम शरीर पर ही नही ठहर कर औरो से अपने को ऊँचा समझा ही है। अगर अपना मन की क्रिया तक तो पहचते है और उनको अपनी उच्चपना नही पकड़ मे आवे तो ओरो का नीचापना तो मानते हैं यह समझते हैं यह मै हं यह मेरी है। इस प्रकार महसूस किया ही है वही बना रहा है कि अहम भाव बना अहमपने को उन दोनो में प्राप्त हो रहे है । वहा इन दोनो है यह तब तक नहीं मिट सकता जब तक हम जानने वाले में अहम्पना भी है एकत्वपना भी है कर्नापना भी है। से एकत्व होते हुए भी इन विकारी भावों से एकत्व जोडते परन्तु तीसरी किया जो ज्ञान की क्रिया है जानने का कार्य- रहेगे इन मन सम्बन्धी विकारी भावो से और शरीर के रूप वह प्रगट-निरन्तर होते हुए भी उसको पकडने की साथ इस जानने वाले ने एकत्व जोडा है यह एकत्व जोडना चेष्टा आज तक नहीं की है। जहा से जानने की क्रिया (शेष पृष्ठ ८ पर)

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