Book Title: Anekant 1982 Book 35 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 45
________________ जीवन्धर चम्पू में आकिंञ्चन्य रहित दीपक की लौ के समान है, जीवन चचल है, शरीर तथा स्वय के राज नाता गने पर रानी विजया को बिजली के समान क्षणभंगुर है और आयु चपल मेघ के गजवैभवरूप परिग्रह में यकाता ग्लानि हो गई। उन्होंने तुल्य है। इस प्रकार इस संसार की सन्तति मे किञ्चित् अपनी आने पुत्रवधुओ को बुताकर कहा-हे पूर्णचन्द्र के भी सुख नही है फिर भी उममे मूढ हुआ पुरुप अपना हित ममान मुख वाली बहुओ ' जाज मेरे हृदय मे इस गारहीन नहीं करता किन्तु इसके विपरीत मोह को बढ़ाने वाले व्यर्थ भयकर मसार के विषय गे विरक्ति हो रही है और यह के कार्य ही करता है। नश्वर विषयों के द्वाग लुभाया विरक्ति इस समय मुझे दीक्षा लेने के लिए शीघ्रता कर हआ बेचारा मानव मोहवश दुखजनित दोपी को नहीं रही है। समझता प्रत्युत ग्रीष्मकाल मे शीतल जल की धारा छोड उमी समय गन्धोत्वाट की पत्नी सुनन्दा को भी मृगमरीचिका के सेवन तुल्य मांमारिक भोगो मे लिप्त मामारिकता से वैगग्य उत्पन्न हो गया अत रानी विजया रहता है। दुर्लभ मानव-जन्म पाकर आत्महित में प्रगाद और मुनन्दा ने पद्मा नाम आर्या के ममीप दीक्षा ले ली। करना उचित नहीं । ११।२३-२६ । इस प्रकार नवचिन्तन इस प्रकार जीधर चम्चू में पुरुप-पात्री के साथ-साथ नारीके फलस्वरूप जीवन्धर स्वामी समार की माया-ममता में पान बीवन में प्रथमत आकिञ्चन्य धर्म का अणु रूप विरक्त हो (आकिञ्चन्य धर्म की पूर्ण दशा को पाकर) धारण करते और अन्तत दीक्षा लेते ओर अमीमितानन्द मुनि दीक्षा लेने का निश्चय कर लेते है और राजकीय- को पाते है। व्यवस्था से निवृत्त हो महावीर-ग्वामी के ममवसरण मे काठाङ्गार के आकिञ्चन्य भिन्न भाव-आकिञ्चन्य जाकर मुनि-दीक्षा धारण करते है एव घोर तपश्चरण के बहुल प्रनगो के साथ-साथ जीवन्धर चम्पू में यदि द्वारा कर्मों को क्षय कर विपुलाचल से मोक्ष प्राप्त करते आकिञ्चन्य का विपरीत रूप देखना चाहे तो काप्ठाङ्गार है। शलाका पुरुष न होने पर भी पुराण,रो ने अपने का चरित तो पाठक के मध्य महज ही उपस्थित हो जाता पुराणो मे आकिञ्चन्य पुरुष जीवन्धर का चरित्र अकित है। नपराज सत्यधर ने कुछ समय के लिए काष्ठाङ्गार को किया। कवियो ने इन पर गद्यपद्यात्मक काव्य लिखे। राज्य दे दिया किन्तु कृतन मन्त्री ने षड्यन्त्र रच युद्ध में जीवन्धरचम्पूकार ने तो स्पष्ट ही लिखा है कि 'जीवन्धरस्य उन नाराज को दीक्षा लेने पर भी मौत के घाट उतार कर चरित दुरितस्य हन्त'-जीवन्धर का चरिय पाप को नष्ट जसोमा उनके राज्य का अधिकार हो गया। काष्ठाङ्गार ने समझा करने वाला है। कि मेने राजा को मार ही डाला और रानी मयूरयन्त्र में ___ इस प्रकार जीवन्धर स्वामी राज्य-वैभव होने पर भी बैठ कर गयी थी अत गिरने पर उसका और उसके गर्भस्थ घर मे विरागी विचारो से सम्पन्न थे। उनका विचार था बालक का प्राणघात स्वय हो गया होगा। इस प्रकार कि यदि धन-दौलत आदि परिग्रह यथार्थत. सुख देने वाले निश्चिन्त हो वह राज्य-शासन करता रहा। है तो मगमरीचिका भी पिपासा-शमन कर सकती है, आर्त- सप्रचार से किसी की अकीर्ति दवती नही प्रत्युत रौद्र-ध्यान भी मोक्षानन्द दिला सकता है, अग्नि शीतल हो फनती ही है। काष्ठा ङ्गार की अकीर्ति राजघातक के रूप र सकती है और मात्र भोजन-इच्छा ही भूख-शान्ति कर में मर्वत्र फैनती ही है काष्ठानर की अकीर्ति राजघातक सकती है। जीवन्धर स्वामी के परिग्रहभिन्न ऐसे भावो ने के रूप मे सर्वत्र फैल गयी। नपमृत्यु के कलक के परिमार्जन संसार के प्रति निराशा उपस्थित की और अन्ततोगत्वा । हेतु राजा की मृत्यु का कारण हाथी द्वारा मारा जाना उन्हें मोक्षवधू का वरण करा दिया। प्रचारित कर जोवन्धर-मातुल गोविन्द महाराज के पास रानी विजया मोर सुनंदा का आकिञ्चन्य-नृपराज मन्देश भेजा। काष्ठाङ्गार-कलक के उपशमन के व्याज से सत्यंधर एवं राजकुवर जीवन्धर के तुल्य रानी विजया का गोविन्द महाराज ने सत्यधर की राजधानी राजपुरी में आकिञ्चन्य व्यक्तित्व भी सहज ही सामने उपस्थित हो स्व सुता लक्ष्मणा का स्वयवर रचा। जीवन्धर राज ने जाता है। राजपुत्र जीवन्धर के राजसिहासनारूढ़ होने पर चन्द्रकवेधक को वेधकर लक्ष्मणा प्राप्त की, तब जीवन्धर

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